श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 16-29

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद

जो सुख अपनी आत्मा में रमण करने वाले निष्क्रिय सन्तोषी पुरुष को मिलता है, वह उस मनुष्य को भला कैसे मिल सकता है, जो कामना और लोभ से धन के लिये हाय-हाय करता हुआ इधर-उधर दौड़ता फिरता है। जैसे पैरों में जूता पहनकर चलने वाले को कंकड़ और काँटों से कोई डर नहीं होता—वैसे ही जिसके मन में सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख-ही-सुख है, दुःख है ही नहीं। युधिष्ठिर! न जाने क्यों मनुष्य केवल जल मात्र से ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवन का निर्वाह नहीं कर लेता। अपितु रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय के फेर में पकड़कर यह बेचारा घर की चौकसी करने वाले कुत्ते के समान हो जाता है। जो ब्राह्मण सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियों की लोलुपता के कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते हैं और वह विवेक भी खो बैठता है। भूख और प्यास मिट जाने पर खाने-पीने की कामना का अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है। परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वी की समस्त दिशाओं को जीत ले और भोग ले, तब भी लोभ का अन्त नहीं होता। अनेक विषयों के ज्ञाता, शंकाओं का समाधान करके चित्त में शास्त्रोक्त अर्थ को बैठा देने वाले और विद्वात्सभाओं के सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोष के कारण गिर जाते हैं।
धर्मराज! संकल्पों के परित्याग से काम को, कामनाओं के त्याग से क्रोध को, संसारी लोग जिसे ‘अर्थ’ कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभ को और तत्त्व के विचार से भय को जीत लेना चाहिये। अध्यात्म विद्या से शोक और मोह पर, संतों की उपासना से दम्भ पर, मौन के द्वारा योग के विघ्नों पर और शरीर-प्राण आदि को निश्चेष्ट करके हिंसा पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। आधिभौतिक दुःख को दया के द्वारा, आधिदैविक वेदना को समाधि के द्वारा और आध्यात्मिक दुःख को योगबल से एवं निद्रा को सात्त्विक भोजन, स्थान, संग आदि के सेवन से जीत लेना चाहिये। सत्त्वगुण के द्वारा रजोगुण एवं तमोगुण पर और उपरति के द्वारा सत्त्वगुण पर विजय प्राप्त करनी चाहिये। श्रीगुरुदेव की भक्ति के द्वारा साधक इन सभी दोषों पर सुगमता से विजय प्राप्त कर सकता है। हृदय में ज्ञान का दीपक जलाने वाले गुरुदेव साक्षात् भगवान् ही हैं। जो दुर्बुद्धि पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र-श्रवण हाथी के स्नान के समान व्यर्थ है। बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरणकमलों का अनुसन्धान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुष के अधीश्वर वे स्वयं भगवान् ही गुरुदेव के रुप में प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रम से मनुष्य मानते हैं। शास्त्रों में जितने भी नियमसम्बन्धी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यह है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर—इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली जाय अथवा पाँचों इन्द्रिय और मन—ये छः वश में हो जायँ। ऐसा होने पर भी यदि उन नियमों के द्वारा भगवान् के ध्यान-चिन्तन आदि की प्राप्ति नहीं होती, तो उन्हें केवल श्रम-ही-श्रम समझना चाहिये। जैसे खेती, व्यापर आदि और उनके फल भी योग-साधना के फल भगवत्प्राप्ति या मुक्ति को नहीं दे सकते—वैसे ही दुष्ट पुरुष के श्रौत-स्मार्त्त कर्म भी कल्याणकारी नहीं होते, प्रत्युत उलटा फल देते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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