श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 57-66

सप्तम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्याय: अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 57-66 का हिन्दी अनुवाद


पैदा होने वाले शरीरों के पहले भी कारणरूप से और उनका अन्त हो जाने पर भी उनकी अवधिरूप से जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूप से बाहर और भोक्तारूप से भीतर है तथा ऊँच और नीच, जानना और जानने का विषय, वाणी और वाणी का विषय, अन्धकार और प्रकश आदि वस्तुओं के रूप में जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह तत्त्ववेत्ता ही है। इसी से मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता। दर्पण आदि में दीख पड़ने वाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्ति से बाधित है, उसका उसमें अस्तित्व है नहीं; फिर भी वस्तु के रूप में तो वह दीखता ही है। वैसे ही इन्द्रियों के द्वारा दीखने वाला वस्तुओं का भेद-भाव भी विचार, युक्ति और आत्मानुभव से असम्भव होने के कारण वस्तुतः न होने पर भी सत्य-सा प्रतीत होता है।

पृथ्वी आदि पंचभूतों से इस शरीर का निर्माण नहीं हुआ है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाये तो न तो वश उन पंचभूतों का संघात है और न विकार या परिणाम ही। क्योंकि यह अपने अवयवों से न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है। इसी प्रकार शरीर के कारणरूप पंचभूत भी अवयवी होने के कारण अपने अवयवों-सूक्ष्मभूतों से भिन्न नहीं हैं, अवयव रूप ही हैं। जब बहुत खोज-बीन करने पर भी अवयवों के अतिरिक्त अवयवी का अस्तित्व नहीं मिलता-वह असत् ही सिद्ध होता है, तब अपने-आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भी असत्य ही हैं। जब तक अज्ञान के कारण एक ही परमतत्त्व में अनेक वस्तुओं का भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तब तक यह भ्रम भी रह सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्न में भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं के अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेध के शास्त्र रहते हैं-वैसे ही जब तक इन भिन्नताओं के अस्तित्व का मोह बना हुआ है, तब तक यहाँ भी विधि-निषेध के शास्त्र हैं ही।

जो विचारशील पुरुष स्वानुभूति से आत्मा के त्रिविध अद्वैत का साक्षात्कार करते हैं-वे जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्य के भेदरूप स्वप्न को मिटा देते हैं। ये अद्वैत तीन प्रकार के हैं-भावद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्याद्वैत। जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है, वैसे ही कार्य कारण मात्र ही है। क्योंकि भेद तो वास्तव में है नहीं। इस प्रकार सबकी एकता का विचार ‘भावद्वैत’ है।

युधिष्ठिर! मन, वाणी और शरीर से होने वाले सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मा में ही हो रहे हैं, उसी में अध्यस्त हैं-इस भाव से समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ‘क्रियाद्वैत’ है। स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धी एवं संसार के अन्य समस्त प्राणियों के तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही हैं, उनमें अपने और पराये का भेद नहीं हैं-इस प्रकार का विचार ‘द्रव्याद्वैत’ है। युधिष्ठिर! जिस पुरुष के लिये जिस द्रव्य को जिस समय जिस उपाय से जिससे ग्रहण करना शास्त्राज्ञा के विरुद्ध न हो, उसे उसी से अपने सब कार्य सम्पन्न करने चाहिये; आपत्तिकाल को छोड़कर इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः