श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 67-80

सप्तम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 67-80 का हिन्दी अनुवाद


महाराज! भगवद्भक्त मनुष्य वेद में कहे हुए इन कर्मों के तथा अन्यान्य स्वकर्मों के अनुष्ठान से घर में रहते हुए ही श्रीकृष्ण की गति को प्राप्त करता है।

युधिष्ठिर! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा और सहायता से बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियों से पार हो गये हो और उन्हीं के चरणकमलों की सेवा से समस्त भूमण्डल को जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं।

पूर्वजन्म में इसके पहले के महाकल्प में मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वों में मेरा बड़ा सम्मान था। मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीर से सुगन्धि निकला करती और देखने में मैं बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमाद में ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था।

एक बार देवताओं के यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान् की लीला का गान करने के लिये उन लोगों ने गन्धर्व और अप्सराओं को बुलाया। मैं जानता था कि वह संतों का समाज है वहाँ भगवान् की लीला का ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियों के साथ लौकिक गीतों का गान करता हुआ उन्मत्त की तरह वहाँ जा पहुँचा। दवताओं ने देखा कि यह तो हम लोगों का अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्ति से मुझे शाप दे दिया कि ‘तुमने हम लोगों की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौंदर्य-सम्पत्ति नष्ट हो जाये और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ’। उनके शाप से मैं दासी का पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र-जीवन में किये हुए महात्माओं के सत्संग और सेवा-शुश्रूषा के प्रभाव से मैं दूसरे जन्म में ब्रह्मा जी का पुत्र हुआ। संतों की अवहेलना और सेवा का यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत-सेवा से ही भगवान् प्रसन्न होते हैं। मैंने तुम्हें गृहस्थों के पापनाशक धर्म बतला दिया। इस धर्म के आचरण से गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियों को मिलने वाला परमपद प्राप्त कर लेता है।

युधिष्ठिर! इस मनुष्य लोक में तुम लोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं; क्योंकि तुम्हारे घर में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्य का रूप धारण करके गुप्त रूप से निवास करते हैं। इसी से सारे संसार को पवित्र कर देने वाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करने के लिये चारों ओर से तुम्हारे पास आया करते हैं। बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो माया के लेश से रहित परमशान्त परमानन्दानुभव-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं-वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं। शंकर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘ये यह हैं’-इस रूप में उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन, भक्ति और संयम के द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवर्षि नारद का यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिर को अत्यन्त आनन्द हुआ। उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की। देवर्षि नारद भगवान् श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिर से विदा लेकर और उनके द्वारा सत्कार पाकर चले गये। भगवान् श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं, यह सुनकर युधिष्ठिर के आश्चर्य की सीमा न रही।

परीक्षित्! इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्षपुत्रियों के वंशों का अलग-अलग वर्णन सुनाया। उन्हीं के वंश से देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण चराचर की सृष्टि हुई है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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