श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 17-29

सप्तम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद


भगवन्! आप कोई उद्योग तो करते है नहीं। फिर आपको भोग कहाँ से प्राप्त होंगे? ब्राह्मण देवता! बिना भोग के ही आपका यह शरीर इतना ह्रष्ट-पुष्ट कैसे है? यदि हमारे सुनने योग्य हो, तो अवश्य बतलाइये। आप विद्वान्, समर्थ और चतुर हैं। आपकी बातें बड़ी अद्भुत और प्रिय होती हैं। ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है?’

नारद जी कहते हैं- धर्मराज! जब प्रह्लाद जी ने महामुनि दत्तात्रेय जी से इस प्रकार प्रश्न किया, तब वे उनकी अमृतमयी वाणी के वशीभूत हो मुसकराते हुए बोले।

दत्तात्रेय जी ने कहा- दैत्यराज! सभी श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा सम्मान करते हैं। मनुष्यों को कर्मों की प्रवृत्ति और उनकी निवृत्ति का क्या फल मिलता है, यह बात तुम अपनी ज्ञानदृष्टि से जानते ही हो। तुम्हारी अनन्य भक्ति के कारण देवाधिदेव भगवान् नारायण सदा तुम्हारे हृदय में विराजमान रहते हैं और जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देते हैं, वैसे ही वे तुम्हारे अज्ञान को नष्ट करते रहते हैं। तो भी प्रह्लाद! मैंने जैसा कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ। क्योंकि आत्मशुद्धि के अभिलाषियों को तुम्हारा सम्मान अवश्य करना चाहिये।

प्रह्लाद जी! तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पुरी नहीं होती। उसी के कारण जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके न जाने कितनी योनियों में मुझे डाला। कर्मों के कारण अनेकों योनियों में भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्य योनि मिली है, जो स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानव देह की भी प्राप्ति का द्वार है- इसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करें तो पशु-पक्षी आदि की योनि, निवृत्त हो जायें तो मोक्ष और दोनों प्रकार के कर्म किये जायें तो फिर मनुष्य योनि की ही प्रप्ति हो सकती है। परन्तु मैं देखता हूँ कि संसार के स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति के लिये, किन्तु उसका फल उलटा होता है- वे और भी दुःख में पड़ जाते हैं। इसीलिये मैं कर्मों से उपरत हो गया हूँ।

सुख ही आत्मा का स्वरूप है। समस्त चेष्टाओं की निवृत्ति ही उसका शरीर-उसके प्रकाशित होने का स्थान है। इसलिये समस्त भोगों को मनोराज्य मात्र समझकर मैं अपने प्रारब्ध को भोगता हुआ पड़ा रहता हूँ। मनुष्य अपने सच्चे स्वार्थ अर्थात् वास्तविक सुख को, जो अपना स्वरूप ही है, भूलकर इस मिथ्या द्वैत को सत्य मानता हुआ अत्यन्त भयंकर और विचित्र जन्मों और मृत्युओं में भटकता रहता है। जैसे अज्ञानी मनुष्य जल में उत्पन्न तिनके और सेवार से ढके हुए जल को जल न समझकर जल के लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समजने वाला पुरुष आत्मा को छोड़कर विषयों की ओर दौड़ता है।

प्रह्लाद जी! शरीर आदि तो प्रारब्ध के अधीन हैं। उनके द्वारा जो अपने लिये सुख पाना और दुःख मिटाना चाहता है, वह कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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