श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 30-46

सप्तम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 30-46 का हिन्दी अनुवाद


मनष्य सर्वदा शारीरिक, मानसिक आदि दुःखों से आक्रान्त ही रहता है। मरणशील तो है ही, यदि उसने बड़े श्रम और कष्ट से कुछ धन और भोग प्राप्त कर भी लिया तो क्या लाभ है? लोभी और इन्द्रियों के वश में रहने वाले धनियों का दुःख तो मैं देखता ही रहता हूँ। भय के मारे उन्हें नींद नहीं आती। सब पर उनका सन्देह बना रहता है। जो जीवन और धन के लोभी हैं-वे राजा, चोर, शत्रु, स्वजन, पशु-पक्षी, याचक और काल से, यहाँ तक कि ‘कहीं मैं भूल न कर बैठूँ, अधिक न खर्च कर दूँ’-इस आशंका से अपने-आप भी सदा डरते रहते हैं। इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि जिसके कारण शोक, मोह, भय, क्रोध, राग, कायरता और जीवन की स्पृहा का त्याग कर दे।

इस लोक में मेरे सबसे बड़े गुरु हैं-अजगर और मधुमक्खी। उनकी शिक्षा से हमें वैराग्य और सन्तोष की प्रप्ति हुई है। मधुमक्खी जैसे मधु इकठ्ठा करती है, वैसे ही लोग बड़े कष्ट से धन-संचय करते हैं; परन्तु दूसरा ही कोई उस धन-राशि के स्वामी को मारकर उसे छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय-भोगों से विरक्त ही रहना चाहिये। मैं अजगर के समान निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ और दैववश जो कुछ मिल जाता है, उसी में सन्तुष्ट रहता हूँ और यदि कुछ नहीं मिलता, तो बहुत दिनों तक धैर्य धारण कर यों ही पड़ा रहता हूँ। कभी थोड़ा अन्न खा लेता हूँ तो कभी बहुत; कभी स्वादिष्ट तो कभी नीरस-बेस्वाद; और कभी अनेकों गुणों से युक्त, तो कभी सर्वथा गुणहीन। कभी बड़ी श्रद्धा से प्राप्त हुआ अन्न खाता हूँ तो कभी अपमान के साथ और किसी-किसी समय अपने-आप ही मिल जाने पर कभी दिन में, कभी रात में और कभी एक बार भोजन करके भी दुबारा कर लेता हूँ।

मैं अपने प्रारब्ध के भोग में ही सन्तुष्ट रहता हूँ। इसलिये मुझे रेशमी या सूती, मृगचर्म या चीर, वल्कल या और कुछ-जैसा भी वस्त्र मिल जाता है, वैसा ही पहन लेता हूँ। कभी मैं पृथ्वी, घास, पत्ते, पत्थर या राख के ढेर पर ही पड़ा रहता हूँ, तो कभी दूसरों की इच्छा से महलों में पलँगों और गद्दों पर सो लेता हूँ। दैत्यराज! कभी नहा-धोकर, शरीर में चन्दन लगाकर सुन्दर वस्त्र, फूलों के हार और गहने पहन रथ, हाथी और घोड़े पर चढ़कर चलता हूँ, तो कभी पिशाच के समान बिलकुल नंग-धडंग विचरता हूँ। मनुष्यों के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते ही हैं। अतः न तो मैं किसी की निन्दा करता हूँ और न स्तुति ही। मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मा से एकता चाहता हूँ।

सत्य का अनुसन्धान करके वाले मनुष्य को चाहिये कि जो नाना प्रकार के पदार्थ और उनके भेद-विभेद मालूम पड़ रहे हैं, उनको चित्तवृत्ति में हवन कर दे। चित्तवृत्ति को इन पदार्थों के सम्बन्ध में विविध भ्रम उत्पन्न करने वाले मन में, मन को सात्त्विक अहंकार में और सात्त्विक अहंकार को महत्तत्त्व के द्वारा माया में हवन कर दे। इस प्रकार ये भेद-विभेद और उनका कारण माया ही है, ऐसा निश्चय करके फिर उस माया को आत्मानुभूति में स्वाहा कर दे। इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार के द्वारा आत्मस्वरूप में स्थित होकर निष्क्रिय एवं उपरत हो जाये।

प्रह्लाद जी! मेरी यह आत्मकथा अत्यन्त गुप्त एवं लोक और शास्त्र से परे की वस्तु है। तुम भगवान् के अत्यन्त प्रेमी हो, इसलिये मैंने तुम्हारे प्रति इसका वर्णन किया है।

नारद जी कहते हैं- महाराज! प्रह्लाद जी ने दत्तात्रेय मुनि से परमहंसों के इस धर्म का श्रवण करके उनकी पूजा की और फिर उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिये प्रस्थान किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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