श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 11-20

पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 11-20 का हिन्दी अनुवाद


उन भगवद्भक्तों के संग से भगवान् के तीर्थतुल्य पवित्र चरित्र सुनने को मिलते हैं, जो उनकी असाधारण शक्ति एवं प्रभाव के सूचक होते हैं। उनका बार-बार सेवन करने वालों के कानों के रास्ते से भगवान् हृदय में प्रवेश कर जाते हैं और उनके सभी प्रकार के दैहिक और मानसिक मलों को नष्ट कर देते हैं। फिर भला, उन भगवद्भक्तों का संग कौन न करना चाहेगा? जिस पुरुष की भगवान् में निष्काम भक्ति है, उसके हृदय में समस्त देवता धर्म-ज्ञानादि सम्पूर्ण सद्गुणों के सहित सदा निवास करते हैं। किन्तु जो भगवान् का भक्त नहीं है, उसमें महापुरुषों के वे गुण आ ही कहाँ से सकते हैं? वह तो तरह-तरह के संकल्प करके निरन्तर तुच्छ बाहरी विषयों की ओर ही दौड़ता रहता है।

जैसे मछलियों को जल अत्यन्त प्रिय-उनके जीवन का आधार होता है, उसी प्रकार साक्षात् श्रीहरि ही समस्त देहधारियों के प्रियतम आत्मा हैं। उन्हें त्यागकर यदि कोई महत्त्वाभिमानी पुरुष घर में आसक्त रहता है तो उस दशा में स्त्री-पुरुषों का बड़प्पन केवल आयु को लेकर ही माना जाता है; गुण की दृष्टि से नहीं। अतः असुरगण! तुम तृष्णा, राग, विषाद, क्रोध, अभिमान, इच्छा, भय, दीनता और मानसिक सन्ताप के मूल तथा जन्म-मरणरूप संसारचक्र का वहन करने वाले गृह आदि को त्यागकर भगवान् नृसिंह के निर्भय चरणकमलों का आश्रय लो’।

केतुमाल वर्ष में लक्ष्मी जी का तथा संवत्सर नामक प्रजापति के पुत्र और पुत्रियों का प्रिय करने के लिये भगवान् कामदेवरूप से निवास करते हैं। उन रात्रि की अभिमानी देवतारूप कन्याओं और दिवसाभिमानी देवतारूप पुत्रों की संख्या मनुष्य की सौ वर्ष की आयु के दिन और रात के बराबर अर्थात् छत्तीस-छत्तीस हजार वर्ष है और वे ही उस वर्ष के अधिपति हैं। वे कन्याएँ परमपुरुष श्रीनारायण के श्रेष्ठ अस्त्र सुदर्शन चक्र के तेज से डर जाती हैं; इसलिये प्रत्येक वर्ष के अन्त में उनके गर्भ नष्ट होकर गिर जाते हैं। भगवान् अपने सुललित गति-विलास से सुशोभित मधुर-मधुर मन्द-मुसकान से मनोहर लीलापूर्ण चारु चितवन से कुछ उलझ के हुए सुन्दर-सुन्दर भ्रूमण्डल की छबीली छटा के द्वारा वदनारविन्द राशि-राशि सौन्दर्य ऊँडेलकर सौन्दर्यदेवी श्रीलक्ष्मी को अत्यन्त आनन्दित करते और स्वयं भी आनन्दित होते रहते हैं। श्रीलक्ष्मी जी परम समाधियोग के द्वारा भगवान् के उस मायामय स्वरूप की रात्रि के समय प्रजापति संवत्सर की कन्यायों सहित और दिन में उनके पतियों के सहित आराधना और वे इस मन्त्र का जप करती हुई भगवान् की स्तुति करती हैं।

‘जो इन्द्रियों के नियन्ता और सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओं के आकर हैं, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति और संकल्प-अध्यवसाय आदि चित्त के धर्मों तथा उनके विषयों के अधीश्वर हैं, ग्यारह इन्द्रिय और पाँच विषय-इन सोलह कलाओं से युक्त हैं, वेदोक्त कर्मों से प्राप्त होते हैं तथा अन्नमय, अमृतमय और सर्वमय हैं-उन मानसिक, ऐन्द्रियक एवं शारीरिक बल स्वरूप परमसुन्दर भगवान् कामदेव को ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं’ इन बीजमन्त्रों के सहित सब ओर से नमस्कार है’।

‘भगवन्! आप इन्द्रियों के अधीश्वर हैं। स्त्रियाँ तरह-तरह के कठोर व्रतों से आपकी ही आराधना करके अन्य लौकिक पतियों की इच्छा किया करती हैं। किन्तु वे उनके प्रिय पुत्र, धन और आयु की रक्षा नहीं कर सकते; क्योंकि वे स्वयं ही परतन्त्र हैं। सच्चा पति (रक्षा करने वाला या ईश्वर) वही है, जो स्वयं सर्वथा निर्भय हो और दूसरे भयभीत लोगों की सब प्रकार से रक्षा कर सके। ऐसे पति एकमात्र आप ही हैं; यदि एक से अधिक ईश्वर माने जायें, तो उन्हें एक-दूसरे से भय होने की सम्भावना है। अतएव आप अपनी प्राप्ति से बढ़कर और किसी लाभ को नहीं मानते।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः