श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 21-32

पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 21-32 का हिन्दी अनुवाद


भगवन्! जो स्त्री आपके चरणकमलों का पूजन ही चाहती है और किसी वस्तु की इच्छा नहीं करती-उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं; किन्तु जो किसी एक कामना को लेकर आपकी उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं। और जब भोग समाप्त होने पर वह नष्ट हो जाती है तो उसके लिये उसे सन्तप्त होना पड़ता है।

अजित! मुझे पाने के लिये इन्द्रिय-सुख के अभिलाषी ब्रह्मा और रुद्र आदि समस्त सुरासुरगण घोर तपस्या करते रहते हैं; किन्तु आपके चरणकमलों का आश्रय लेने वाले भक्त के सिवा मुझे कोई पा नहीं सकता; क्योंकि मेरा मन तो आपमें ही लगा रहता है।

अच्युत! आप अपने जिस वन्दनीय करकमल को भक्तों के मस्तक पर रखते हैं, उसे मेरे सिर पर भी रखिये। वरेण्य! आप मुझे केवल श्रीलांछन रूप से अपने वक्षःस्थल में ही धारण करते हैं; सो आप सर्वसमर्थ हैं, आप अपनी माया से जो लीलाएँ करते हैं, उनका रहस्य कौन जान सकता है? रम्यकवर्ष में भगवान् ने वहाँ के अधिपति मनु को पूर्वकाल में अपना परमप्रिय मत्स्यरूप दिखाया था। मनु जी इस समय भी भगवान् के उसी रूप की बड़े भक्तिभाव से उपासना करते हैं और इस मन्त्र का जप करते हुए स्तुति करते हैं- ‘सत्त्वप्रधान मुख्य प्राण सूत्रात्मा तथा मनोबल, इन्द्रियबल और शरीरबल ओंकार पद के अर्थ सर्वश्रेष्ठ भगवान् महामत्स्य को बार-बार नमस्कार है’।

प्रभो! नट जिस प्रकार कठपुतलियों को नचाता है, उसी प्रकार आप ब्राह्मणादि नामों की डोरी से सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करके नचा रहे हैं। अतः आप ही सबके प्रेरक हैं। आपको ब्रह्मादि लोकपालगण भी नहीं देख सकते; तथापि आप समस्त प्राणियों के भीतर प्राणरूप से और बाहर वायुरूप से निरन्तर संचार करते रहते हैं। वेद ही आपका महान् शब्द हैं।

एक बार इन्द्रादि इन्द्रियाभिमानी देवताओं को प्राणस्वरूप आपसे डाह हुआ। तब आपके अलग हो जाने पर वे अलग-अलग अथवा आपस में मिलकर भी मनुष्य, पशु, स्थावर-जंगम आदि जितने शरीर दिखाई देते हैं-उनमें से किसी की बहुत यत्न करने पर भी रक्षा नहीं कर सके।

अजन्मा प्रभो! आपने मेरे सहित समस्त औषध और लताओं की आश्रयरूपा इस पृथ्वी को लेकर बड़ी-बड़ी उत्ताल तरंगों से युक्त प्रलयकालीन समुद्र में बड़े उत्साह से विहार किया था। आप संसार के समस्त प्राणसमुदाय के नियन्ता हैं; मेरा आपको नमस्कार है’।

हिरण्मय वर्ष में भगवान् कच्छप रूप धारण करके रहते हैं। वहाँ के निवासियों के सहित पितृराज अर्यमा भगवान् की उस प्रियतम मूर्ति की उपासना करते हैं और इस मन्त्र को निरन्तर जपते हुए स्तुति करते हैं- 'जो सम्पूर्ण सत्त्वगुण से युक्त हैं, जल में विचरते रहने के कारण जिनके स्थान का कोई निश्चय नहीं है तथा जो काल की मर्यादा के बाहर हैं, उन ओंकारस्वरूप सर्वव्यापक सर्वाधार भगवान् कच्छप को बार-बार नमस्कार है’।

भगवन्! अनेक रूपों में प्रतीत होने वाला यह दृश्यप्रपंच यद्यपि मिथ्या ही निश्चय होता है, इसलिये इसकी वस्तुतः कोई संख्या नहीं है; तथापि यह माया से प्रकाशित होने वाला आपका ही रूप है। ऐसे अनिर्वचनीय रूप आपको मेरा नमस्कार है। एकमात्र आप ही जरायुज, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जंगम, स्थावर, देवता, ऋषि, पितृगण, भूत, इन्द्रिय, स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप, ग्रह और तारा आदि विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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