श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 14-24

नवम स्कन्ध: अथाष्टमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद


यह संसार-सागर एक मृत्युमय पथ है। इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है। परन्तु कपिल मुनि ने इस जगत् में सांख्यशास्त्र की एक ऐसी दृढ़ नाव बना दी है, जिससे मुक्ति की इच्छा रखने वाला कोई भी व्यक्ति उस समुद्र के पार जा सकता है। वे केवल परम ज्ञानी ही नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। उनमें भला, यह शत्रु है और यह मित्र-इस प्रकार की भेदबुद्धि कैसे हो सकती है?

सगर की दूसरी पत्नी का नाम था केशिनी। उसके गर्भ से उन्हें असमंजस नाम का पुत्र हुआ था। असमंजस के पुत्र का नामा था अंशुमान्। वह अपने दादा सगर की आज्ञाओं का पालन तथा उन्हीं की सेवा में लगा रहता। असमंजस पहले जन्म में योगी थे। संग के कारण वे योग से विचलित हो गये थे, परतु अब भी उन्हें अपने पूर्वजन्म का स्मरण बना हुआ था। इसलिये वे ऐसे काम किया करते थे, जिनसे भाई-बन्धु उन्हें प्रिय न समझें। वे कभी-कभी तो अत्यत्न निन्दित कर्म कर बैठते और अपने को पागल-सा दिखलाते-यहाँ तक कि खेलते हुए बच्चों को सरयू में डाल देते। इस प्रकार उन्होंने लोगों को उद्विग्न कर दिया था। अन्त में उनकी ऐसी करतूत देखकर पिता ने पुत्र-स्नेह को तिलांजलि दे दी और उन्हें त्याग दिया।

तदनन्तर असमंजस ने अपने योगबल से उन सब बालकों को जीवित कर दिया और अपने को पिता को दिखाकर वे वन में चले गये। अयोध्या के नागरिकों ने जब देखा कि हमारे बालक तो फिर लौट आये, तब उन्हें असीम आश्चर्य हुआ और राजा सगर को भी बड़ा पश्चाताप हुआ। इसके बाद राजा सगर की आज्ञा से अंशुमान् घोड़े को ढूँढने के लिये निकले। उन्होंने अपने चाचाओं के द्वारा खोदे हुए समुद्र के किनारे-किनारे चलकर उनके शरीर के भस्म के पास ही घोड़े को देखा। वहीं भगवान के अवतार कपिल मुनि बैठे हुए थे। उनको देखकर उदारहृदय अंशुमान ने उनके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर एकाग्र मन से उनकी स्तुति की।

अंशुमान ने कहा- भगवन! आप अजन्मा ब्रह्मा जी से भी परे हैं। इसीलिये वे आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। देखने की बात तो अलग रही-वे समाधि करते-करते एवं युक्ति लड़ाते-लड़ाते हार गये, किन्तु आज तक आपको समझ नहीं पाये। हम लोग तो उनके मन, शरीर और बुद्धि से होने वाली सृष्टि के द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। तब भला, हम आपको कैसे समझ सकते हैं। संसार के शरीरधारी सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण-प्रधान हैं। वे जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में केवल गुणमय पदार्थों, विषयों को और सुषुप्ति-अवस्था में केवल अज्ञान-ही-अज्ञान देखते हैं। इसका कारण यह है कि वे आपकी माया से मोहित हो रहे हैं। वे बहिर्मुख होने के कारण बाहर की वस्तुओं को तो देखते हैं, पर अपने ही हृदय में स्थित आपको नहीं देख पाते। आप एकरस, ज्ञानघन हैं। सनन्दन आदि मुनि, जो आत्मस्वरूप के अनुभव से माया के गुणों के द्वारा होने वाले भेदभाव को और उसके कारण अज्ञान को नष्ट कर चुके हैं, आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। माया के गुणों में ही भूला हुआ मैं मूढ़ किस प्रकार आपका चिन्तन करूँ?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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