श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 88 श्लोक 13-25

दशम स्कन्ध: अष्टाशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टाशीतितम अध्याय श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद


इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। भगवान शंकर एक बार वृकासुर को वर देकर संकट में पड़ गये थे। परीक्षित! वृकासुर शकुनि का पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारद को देख लिया और उनसे पूछा कि- ‘तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होने वाला कौन है?’

परीक्षित! देवर्षि नारद ने कहा- ‘तुम भगवान शंकर की आराधना करो। इससे तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायेगा। वे थोड़े ही गुणों से शीघ्र-से-शीघ्र प्रसन्न और थोड़े ही अपराध से तुरन्त क्रोध कर बैठते हैं। रावण और बाणासुर ने केवल बंदीजनों के समान शंकर जी की कुछ स्तुतियाँ की थीं। इसी से वे उन पर प्रसन्न हो गये और उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य दे दिया। बाद में रावण के कैलास उठाने और बाणासुर के नगर की रक्षा का भार लेने से वे उनके लिये संकट में भी पड़ गये थे’।

नारद जी का उपदेश पाकर वृकासुर केदार क्षेत्र में गया और अग्नि को भगवान शंकर का मुख मानकर और शरीर का मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा। इस प्रकार छः दिन तक उपासना करने पर भी जब उसे भगवान शंकर के दर्शन न हुए, तब उसे बड़ा दुःख हुआ। सातवें दिन केदार तीर्थ में स्नान करके उसने अपने भीगे बाल वाले मस्तक को कुल्हाड़े से काटकर हवन करना चाहा। परीक्षित! जैसे जगत् में कोई दुःखवश आत्महत्या करने जाता है तो हम लोग करुणावश उसे बचा लेते हैं, वैसे ही परम दयालु भगवान शंकर ने वृकासुर के आत्मघात के पहले ही अग्निकुण्ड से अग्निदेव के समान प्रकट होकर अपने दोनों हाथों से उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गला काटने से रोक दिया। उनका स्पर्श होते ही वृकासुर के अंग ज्यों-के-त्यों पूर्ण हो गये। भगवान शंकर ने वृकासुर से कहा- ‘प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो; बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम मुँह माँगा वर माँग लो। अरे भाई! मैं तो अपने शरणागत भक्तों पर केवल जल चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ। भला, तुम झूठ-मूठ अपने शरीर को क्यों पीड़ा दे रहे हो?’

परीक्षित! अत्यन्त पापी वृकासुर ने समस्त प्राणियों को भयभीत करने वाला यह वर माँगा कि ‘मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूँ, वही मर जाये’। परीक्षित! उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनमने-से हो गये, फिर हँसकर कह दिया- ‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ ऐसा वर देकर उन्होंने मानो साँप को अमृत पिला दिया।

भगवान शंकर के इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आयी कि ‘मैं पार्वती जी को ही हर लूँ।’ वह असुर शंकर जी के वर की परीक्षा के लिये उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का उद्योग करने लगा। अब तो शंकर जी अपने दिये हुए वरदान से ही भयभीत हो गये। वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर काँपते हुए भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के अन्त तक दौड़ते गये; परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तर की ओर बढ़े। बड़े-बड़े देवता इस संकट को टालने का कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्त में वे प्राकृतिक अंधकार से परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठ-लोक में गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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