श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 58 श्लोक 28-40

दशम स्कन्ध: अष्टपंचाशत्त्म अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 28-40 का हिन्दी अनुवाद


कुछ दिनों के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियों का अनुमोदन प्राप्त करके सात्यकि आदि के साथ द्वारका लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने विवाह के योग्य ऋतु और ज्यौतिष शास्त्र के अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्न में कालिन्दी जी का पाणिग्रहण किया। इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियों को परममंगल और परमानन्द की प्राप्ति हुई।

अवन्ती (उज्जैन) देश के राजा थे- विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधन के वशवर्ती तथा अनुयायी थे। उनकी बहिन मित्रविन्दा ने स्वयंवर में भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना पति बनाना चाहा। परन्तु विन्द और अनुविन्द ने अपनी बहिन को रोक दिया। परीक्षित! मित्रविन्दा श्रीकृष्ण की फूआ राजाधिदेवी की कन्या थी। भगवान श्रीकृष्ण राजाओं की भरी सभा में उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये।

परीक्षित! कोसलदेश के राजा थे नग्नजित। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परम सुन्दरी कन्या का नाम था सत्या; नग्नजित की पुत्री होने से वह नाग्नजिती भी कहलाती थी। परीक्षित! राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार सात दुर्दान्त बैलों पर विजय प्राप्त न कर सकने के कारण कोई भी राजा उस कन्या से विवाह न कर सका। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुष की गन्ध भी नहीं सह सकते थे। जब यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलों को जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे। कोसलनरेश महाराज नग्नजित ने बड़ी प्रसन्नता से उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्री से उनका सत्कार किया। भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया।

राजा नग्नजित की कन्या सत्या ने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि ‘यदि मैंने व्रत-नियम आदि का पालन करके इन्हीं का चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसा को पूर्ण करें।' नाग्नजिती सत्या मन-ही-मन सोचने लगी- ‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपंकज का पराग अपने सिर पर धारण करते हैं और जिन प्रभु ने अपनी बनायी हुई मर्यादा का पालन करने के लिये ही समय-समय पर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियम से प्रसन्न होंगे? वे तो केवल अपनी कृपा से ही प्रसन्न हो सकते हैं।'

परीक्षित! राजा नग्नजित ने भगवान श्रीकृष्ण की विधिपूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की- ‘जगत के एकमात्र स्वामी नारायण! आप अपने स्वरूपभूत आनन्द से ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य। मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’

श्रीशुकदेव जी कहते हैं—परीक्षित! राजा नग्नजित का दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान श्रीकृष्ण बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मुसकराते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से कहा।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- राजन! जो क्षत्रिय अपने धर्म में स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ विद्वानों ने उसके इस कर्म की निन्दा की है। फिर भी मैं आपसे सौहार्द का-प्रेम का सबन्ध स्थापित करने के लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ इसके बदले में कुछ शुल्क देने की प्रथा नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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