श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 57 श्लोक 14-28

दशम स्कन्ध: सप्तपंचाशत्त्म अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद


जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टका-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिए अक्रूर जी से प्रार्थना की। उन्होंने कहा- ‘भाई! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान भगवान का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने। जो भगवान खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैं- इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्वविधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्ष की अवस्था में- जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्ते को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अद्भुत हैं। वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।'

जब इस प्रकार अक्रूर जी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि उन्हीं के पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलने वाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरुड़ चिह्न से चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेग वाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वसुर सत्राजित को मारने वाले शतधन्वा का पीछा किया। मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोडा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान ने भी पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धार वाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रों में स्यमन्तक मणि को ढूँढा। परन्तु जब मणि नहीं मिली, तब भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलराम जी के पास आकर कहा- ‘हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तक मणि तो है ही नहीं।'

बलराम जी ने कहा- ‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि को किसी-न-किसी के पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ। मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’

परीक्षित! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलराम जी मिथिला नगरी में चले गये। जब मिथिला नरेश ने देखा कि पूजनीय बलराम जी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। इसके बाद भगवान बलराम जी कई वर्षों तक मिथिलापुरी में ही रहे। महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रखा। इसके बाद समय पर धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने बलराम जी से गदा युद्ध की शिक्षा ग्रहण की। अपनी प्रिया सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवान श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परन्तु स्यमन्तक मणि उसके पास न मिली। इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओं के साथ अपन श्वशुर सत्राजित की वे सब और्ध्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणी का परलोक सुधरता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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