दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्तमोऽध्याय (पूर्वार्ध)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्तमोऽध्याय श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवाद
जब राजा मुचुकुन्द ने इस प्रकार कहा, तब समस्त प्राणियों के जीवनदाता भगवान श्रीकृष्ण ने हँसते हुए मेघध्वनि के समान गम्भीर वाणी से कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय मुचुकुन्द! मेरे हज़ारों जन्म, कर्म और नाम हैं। वे अनन्त हैं, इसलिये मैं भी उसकी गिनती करके नहीं बतला सकता। यह सम्भव है कि कोई पुरुष अपने अनेक जन्मों में पृथ्वी के छोटे-छोटे धूल-कणों की गिनती कर डाले; परन्तु मेरे जन्म, गुण, कर्म और नामों को कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता। राजन! सनक-सनन्दन आदि परमर्षिगण मेरे त्रिकालसिद्ध जन्म और कर्मों का वर्णन करते रहते हैं, परन्तु कभी उनका पार नहीं पाते। प्रिय मुचुकुन्द! ऐसा होने पर भी मैं अपने वर्तमान जन्म, कर्म और नामों का वर्णन करता हूँ, सुनो। पहले ब्रह्मा जी ने मुझसे धर्म की रक्षा और पृथ्वी के भार बने हुए असुरों का संहार करने के लिये प्रार्थना की थी। उन्हीं की प्रार्थना से मैंने यदुवंश में वसुदेव जी के यहाँ अवतार ग्रहण किया है। अब मैं वसुदेव जी का पुत्र हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते हैं। अब तक मैं कालनेमि असुर का, जो कंस के रूप में पैदा हुआ था, तथा प्रलम्ब आदि अनेकों साधुद्रोही असुरों का संहार कर चुका हूँ। राजन! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणा से तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया। वहीं मैं तुम पर कृपा करने के लिये ही इस गुफ़ा में आया हूँ। तुमने पहले मेरी बहुत आराधना की है और मैं हूँ भक्तवत्सल। इसलिये राजर्षे! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। जो पुरुष मेरी शरण में आ जाता है, उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब राजा मुचुकुन्द को वृद्ध गर्ग का यह कथन याद आ गया कि यदुवंश में भगवान अवतीर्ण होने वाले हैं। वे जान गये कि ये स्वयं भगवान नारायण हैं। आनन्द से भरकर उन्होंने भगवान के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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