श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 51 श्लोक 15-30

दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्तम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्तम अध्याय श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद


एक बार इन्द्र आदि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गये थे। उन्होंने अपनी रक्षा के लिये राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की। जब बहुत दिनों के बाद देवताओं को सेनापति के रूप में स्वामी कार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगों ने राजा मुचुकुन्द से कहा- ‘राजन! आपने हम लोगों की रक्षा के लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है। अब आप विश्राम कीजिये। वीर शिरोमणे! आपने हमारी रक्षा के लिये मनुष्य लोक का अपना अकण्टक राज्य छोड़ दिया और जीवन की अभिलाषाएँ तथा भोगों का भी परित्याग कर दिया। अब आपके पुत्र, रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा आपके समय की प्रजा में से कोई नहीं रहा है। सब-के-सब काल के गाल में चले गये। काल समस्त बलवानों से भी बलवान है। वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है। जैसे ग्वाले पशुओं को अपने वश में रखते हैं, वैसे ही वह खेल-खेल में सारी प्रजा को अपने अधीन रखता है।

राजन! आपका कल्याण हो। आपकी जो इच्छा हो, हमसे माँग लीजिये। हम कैवल्य-मोक्ष के अतिरिक्त आपको सब कुछ दे सकते हैं। क्योंकि कैवल्य-मोक्ष देने की सामर्थ्य तो केवल अविनाशी भगवान विष्णु में ही है।

परम यशस्वी राजा मुचुकुन्द ने देवताओं के इस प्रकार कहने पर उनकी वन्दना की और बहुत थके होने के कारण निद्रा का ही वर माँगा तथा उनसे वर पाकर वे नींद से भरकर पर्वत की गुफ़ा में जा सोये। उस समय देवताओं ने कह दिया था कि ‘राजन! सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीच में ही जगा देगा तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जायगा।'

परीक्षित! जब कालयवन भस्म हो गया, तब यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने परम बुद्धिमान राजा मुचुमुन्द को अपना दर्शन दिया। भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघ के समान साँवला था। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स और गले में कौस्तुभ मणि अपनी दिव्य ज्योति बिखेर रहे थे। चार भुजाएँ थीं। वैजयन्ती माला अलग ही घुटनों तक लटक रही थी। मुखकमल अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्नता से खिला हुआ था। कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। होठों पर प्रेम भरी मुस्कुराहट थी और नेत्रों की चितवन अनुराग की वर्षा कर रही थी। अत्यन्त दर्शनीय तरुण-अवस्था और मतवाले सिंह के समान निर्भीक चाल। राजा मुचुकुन्द यद्यपि बड़े बुद्धिमान और धीर पुरुष थे, फिर भी भगवान की यह दिव्य ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर कुछ चकित हो गये। उनके तेज से हतप्रतिभ हो सकपका गये। भगवान अपने तेज से दुर्द्धुर्ष जान पड़ते थे; राजा ने तनिक शंकित होकर पूछा।

राजा मुचुकुन्द ने कहा- ‘आप कौन हैं? इस काँटों से भरे हुए घोर जंगल में आप कमल के समान कोमल चरणों से क्यों विचर रहे हैं? और इस पर्वत की गुफ़ा में ही पधारने का क्या प्रयोजन था? क्या आप समस्त तेजस्वियों के मूर्तिमान तेज अथवा भगवान अग्निदेव तो नहीं हैं? क्या आप सूर्य, चन्द्रमा, देवराज इन्द्र या कोई दूसरे लोकपाल हैं? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप देवताओं के आराध्यदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर- इन तीनों में से पुरुषोत्तम भगवान नारायण ही हैं। क्योंकि जैसे श्रेष्ठ दीपक अँधेरे को दूर कर देता है, वैसे ही आप अपनी अंगकान्ति से इस गुफ़ा का अँधेरा भगा रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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