श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 35-47

तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 35-47 का हिन्दी अनुवाद


श्रीभगवान् ने कह- मुने! वैदिक और लौकिक सभी कर्मों में संसार के लिये मेरा कथन ही प्रमाण है। इसलिये मैंने जो तुमसे कहा था कि ‘मैं तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगा’, उसे सत्य करने के लिये ही मैंने यह अवतार लिया है। इस लोक में मेरा यह जन्म लिंगशरीर से मुक्त होने की इच्छा वाले मुनियों के लिये आत्मदर्शन में उपयोगी प्रकृति आदि तत्त्वों का विवेचन करने के लिये ही हुआ है। आत्मज्ञान का यह सूक्ष्म मार्ग बहुत समय से लुप्त हो गया है। इसे फिर से प्रवर्तित करने के लिये ही मैंने यह शरीर ग्रहण किया है- ऐसा जानो।

मुने! मैं आज्ञा देता हूँ, तुम इच्छानुसार जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्यु को जीतकर मोक्षपद प्राप्त करने के लिये मेरा भजन करो। मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवों के अन्तःकरणों में रहने वाला परमात्मा हूँ। अतः जब तुम विशुद्ध बुद्धि के द्वारा अपने अन्तःकरण में मेरा साक्षात्कार कर लोगे, तब सब प्रकार के शोकों से छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे। माता देवहूति को भी मैं सम्पूर्ण कर्मों से छुड़ाने वाला आत्मज्ञान प्रदान करूँगा, जिससे यह संसाररूप भय से पार हो जायेगी।

श्रीमैत्रेय जी कहते ह- भगवान् कपिल के इस प्रकार कहने पर प्रजापति कर्दम जी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वन को चले गये। वहाँ अहिंसामय संन्यास-धर्म का पालन करते हुए वे एकमात्र श्रीभगवान् की शरण हो गये तथा अग्नि और आश्रम का त्याग करके निःसंग भाव पृथ्वी पर विचरने लगे। जो कार्यकारण से अतीत है, सात्वादि गुणों का प्रकाशक एवं निर्गुण है और अनन्य भक्ति से ही प्रत्यक्ष होता है, उस परब्रह्म में उन्होंने अपना मन लगा दिया। वे अहंकार, ममता और सुख-दुःखादि द्वन्दों से छूटकर समदर्शी (भेददृष्टि से रहित) हो, सबमें अपने आत्मा को ही देखने लगे। उनकी बुद्धि अन्तर्मुख एवं शान्त हो गयी। उस समय धीर कर्दम जी शान्त लहरों वाले समुद्र के समान जान पड़ने लगे। परम भक्तिभाव के द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेव में चित्त स्थिर हो जाने से वे सारे बन्धनों से मुक्त हो गये। सम्पूर्ण भूतों में अपने आत्मा श्रीभगवान् को और सम्पूर्ण भूतों को आत्मस्वरूप श्रीहरि में स्थित देखने लगे। इस प्रकार इच्छा और द्वेष से रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्ति से सम्पन्न होकर श्रीकर्दम जी ने भगवान् का परमपद प्राप्त कर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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