श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 34-45

चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 34-45 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् भूतनाथ का श्रीअंग बड़ा ही शान्त था। सनन्दनादि शान्त सिद्धगण और सखा-यक्ष-राक्षसों के स्वामी कुबेर उनकी सेवा कर रहे थे। जगत्पति महादेव जी सारे संसार के सुहृद् हैं, स्नेहवश सबका कल्याण करने वाले हैं; वे लोकहित के लिये ही उपासना, चित्त की एकाग्रता और समाधि आदि साधकों का आचरण करते रहते हैं। सन्ध्याकालीन मेघ की-सी कान्ति वाले शरीर पर वे तपस्वियों के अभीष्ट चिह्न-भस्म, दण्ड, जटा और मृगचर्म एवं मस्तक पर चन्द्रकला धारण किये हुए थे। वे एक कुशासन पर बैठे थे और अनेकों साधु श्रोताओं के बीच में श्रीनारद जी के पूछने पर वे सनातन ब्रह्म का उपदेश कर रहे थे। उनका बायाँ चरण दायीं जाँघ पर रखा था। वे बायाँ हाथ बायें घुटने पर रखे, कलाई में रुद्राक्ष की माला डाले तर्कमुद्रा से[1] विराजमान थे।

वे योगपट्ट (काठ की बनी हुई टेकनी) का सहारा लिये एकाग्रचित्त से ब्रह्मानन्द का अनुभव कर रहे थे। लोकपालों के सहित समस्त मुनियों ने मननशील में सर्वश्रेष्ठ भगवान् शंकर को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। यद्यपि समस्त देवता और दैत्यों के अधिपति भी श्रीमहादेव जी के चरणकमलों की वन्दना करते हैं, तथापि वे श्रीब्रह्मा जी को अपने स्थान पर आया देख तुरंत खड़े हो गये और जैसे वामनवातार में परमपूज्य विष्णु भगवान् कश्यप जी की वन्दना करते हैं, उसी प्रकार सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। इसी प्रकार शंकर जी के चारों ओर जो महर्षि सहित अन्यान्य सिद्धगण बैठे थे, उन्होंने भी ब्रह्मा जी को प्रणाम किया। सबके नमस्कार कर चुकने पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमौलि भगवान् से, जो अब तक प्रणाम की मुद्रा में ही खड़े थे, हँसते हुए कहा।

श्रीब्रह्मा जी ने कहा- देव! मैं जनता हूँ, आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं; क्योंकि विश्व की योनि शक्ति (प्रकृति) और उसके बीज शिव (पुरुष) से परे जो एकरस परब्रह्म है, वह आप ही हैं। भगवन्! आप मकड़ी के समान ही अपने स्वरूपभूत शिव-शक्ति के रूप में क्रीड़ा करते हुए लीला से ही संसार की रचना, पालन और संहार करते रहते हैं। आपने ही धर्म और अर्थ की प्राप्ति कराने वाले वेद की रक्षा के लिये दक्ष को निमित्त बनाकर यज्ञ को प्रकट किया है। आपकी ही बाँधी हुई ये वर्णाश्रम की मर्यादाएँ हैं, जिसका नियमनिष्ठ ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं।

मंगलमय महेश्वर! आप शुभ कर्म करने वालों को स्वर्गलोक अथवा मोक्षपद प्रदान करते हैं तथा पापकर्म करने वालों को घोर नरकों में डालते हैं। फिर भी किसी-किसी व्यक्ति के लिये इन कर्मों का फल उलटा कैसे हो जाता है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तर्जनी को अँगूठे से जोड़कर अन्य अँगुलियों को आपस में मिलाकर फैला देने से बन्ध सिद्ध होता है, उसे ‘तर्कमुद्रा’ कहते हैं। इसका नाम ज्ञानमुद्रा भी है

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