श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 17-33

चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


कटहल, गूलर, पीपल, बड़, गूगल, भोजवृक्ष, ओषध जाति के पेड़ (केले आदि, जो फल आने के बाद काट दिये जाते हैं), सुपारी, राजपूग, जामुन, खजूर, आमड़ा, आम, पियाल, महुआ और लिसौड़ा आदि विभिन्न प्रकार के वृक्षों तथा पोले और ठोस बाँस के झुरमुटों से वह पर्वत बड़ा ही मनोहर मालूम होता है। उसके सरोवरों में कुमुद, उत्पल, कल्हार और शतपत्र आदि अनेक जाति के कमल खिले रहते हैं। उनकी शोभा से मुग्ध होकर कलरव करते हुए झुंड-के-झुंड पक्षियों से वह बड़ा ही भला लगता है। वहाँ जहाँ-तहाँ हरिन, वानर, सूअर, सिंह, रीछ, साही, नीलगाय, शरभ, बाघ, कृष्णमृग, भैंसे, कर्णान्त्र, एकपद, अश्वमुख, भेड़िये और कस्तूरी-मृग घूमते रहते हैं तथा वहाँ के सरोवरों के तट केलों की पंक्तियों से घिरे होने के कारण बड़ी शोभा पाते हैं। उसके चारों ओर नन्दा नाम की नदी बहती है, जिसका पवित्र जल देवी सती के स्नान करने से और भी पवित्र एवं सुगन्धित हो गया है।

भगवान् भूतनाथ के निवास स्थान उस कैलास पर्वत की ऐसी रमणीयता देखकर देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ। वहाँ उन्होंने अलका नाम की एक सुरम्य पुरी और सौगान्धिक वन देखा, जिसमें सर्वत्र सुगन्ध फैलाने वाले सौगन्धिक नाम के कमल खिले हुए थे। उस नगर के बाहर की ओर नन्दा और अलकनन्दा नाम की दो नदियाँ हैं; वे तीर्थपाद श्रीहरि की चरण-रज के संयोग से अत्यन्त पवित्र हो गयी हैं। विदुर जी! उन नदियों में रतिविलास से थकी हुई देवांगनाएँ अपने-अपने निवास स्थान से आकर जलक्रीड़ा करती हैं और उसमें प्रवेश कर अपने प्रियतमों पर जल उलीचती हैं। स्नान के समय उनका तुरंत का लगाया हुआ कुचकुंकुम धुल जाने से जल पीला हो जाता है। उस कुंकुममिश्रित जल को हाथी प्यास न होने पर भी गन्ध के लोभ से स्वयं पीते और अपनी हथिनियों को पिलाते हैं।

अलकापुरी पर चाँदी, सोने और बहुमूल्य मणियों के सैकड़ों विमान छाये हुए थे, जिनमें अनेकों यक्षपत्नियाँ निवास करती थीं। इनके कारण वह विशाल नगरी बिजली और बादलों से छाये हुए आकाश के समान जान पड़ती थी। यक्षराज कुबेर की राजधानी उस अलकापुरी को पीछे छोड़कर देवगण सौगन्धिक वन में आये। वह वन रंग-बिरंगे फल, फूल और पत्तों वाले अनेकों कल्पवृक्षों से सुशोभित था। उसमें कोकिल आदि पक्षियों का कलरव और भौरों का गुंजार हो रहा था तथा राजहंसों के परमप्रिय कमलकुसुमों से सुशोभित अनेकों सरोवरों थे। वह वन जंगली हाथियों के शरीर की रगड़ लगने से घिसे हुए हरिचन्दन वृक्षों का स्पर्श करके चलने वाली सुगन्धित वायु के द्वारा यक्षपत्नियों के मन को विशेषरूप से मथे डालता था। बावलियों की सीढ़ियाँ वैदूर्य मणि की बनी हुई थीं। उसमें बहुत-से कमल खिले रहते थे। वहाँ अनेकों किम्पुरुष जी बहलाने के लिये आये हुए थे। इस प्रकार उस वन की शोभा निहारते जब देवगण कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें पास ही एक वट वृक्ष दिखलायी दिया। वह वृक्ष सौ योजन ऊँचा था तथा शाखाएँ पचहत्तर योजन तक फैली हुई थीं। उसके चारों ओर सर्वदा अविचल छाया बनी रहती थी, इसलिये घाम का कष्ट कभी नहीं होता था; तथा उसमे कोई घोंसला भी न था। उस महायोगमय और मुमुक्षों के आश्रयभूत वृक्ष के नीचे देवताओं ने भगवान् शंकर को विराजमान देखा। वे साक्षात् क्रोधहीन काल के समान जान पड़ते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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