श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 16-31

चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद


विदुर जी ने पूछा- गुरुजी! कृपया यह बतलाइये कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करने वाले इन सर्वश्रेष्ठ देवों ने अत्रि मुनि के यहाँ क्या करने की इच्छा से अवतार लिया था?

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- जब ब्रह्मा जी ने ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ महर्षि अत्रि को सृष्टि रचने के लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मिणी के सहित तप करने के लिये ऋक्ष नामक कुल पर्वत पर गये। वहाँ पलाश और अशोक के वृक्षों का एक विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलों के गुच्छों से लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदी के जल की कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी। उस वन में वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायाम के द्वारा चित्त को वश में करके सौ वर्ष तक केवल वायु पीकर सर्दी-गरमी आदि द्वन्दों की कुछ भी परवा न कर एक ही पैर से खड़े रहे। उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर हैं, मैं उनकी शरण में हूँ; वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें।

तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी ईंधन से प्रज्वलित हुआ अत्रि मुनि का तेज उनके मस्तक से निकलकर तीनों लोकों को तपा रहा है- ब्रह्मा, विष्णु और महादेव- तीनों जगत्पति उनके आश्रम पर आये। उस समय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग-उनका सुयश गा रहे थे। उन तीनों का एक ही साथ प्रादुर्भाव होने से अत्रि मुनि का अन्तःकरण प्रकाशित हो उठा। उन्होंने एक पैर से खड़े-खड़े ही उन देवदेवों को देखा और फिर पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर प्रणाम करने के अनन्तर अर्घ्य-पुष्पादि पूजन की सामग्री हाथ में ले उनकी पूजा की। वे तीनों अपने-अपने वाहन-हंस, गरुड़ और बैल पर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र, त्रिशूलादि चिह्नों से सुशोभित थे। उनकी आँखों से कृपा की वर्षा हो रही थी। उनके मुख पर मन्द हास्य की रेखा थी-जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी। उनके तेज से चौंधियाकर मुनिवर ने अपनी आँखें मूँद लीं। वे चित्त को उन्हीं की ओर लगाकर हाथ जोड़ अति मधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनों में लोक में सबसे बड़े उन तीनों देवों की स्तुति करने लगे।

अत्रि मुनि ने कहा- भगवन्! प्रत्येक कल्प के आरम्भ में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये जो माया सत्त्वादि तीनों गुणों का विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं-वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कहिये-मैंने जिनको बुलाया था, आपमें से वे कौन महानुभाव हैं? क्योंकि मैंने तो सन्तान प्राप्ति की इच्छा से केवल एक सुरेश्वर भगवान् का का ही चिन्तन किया था। फिर आप तीनों ने यहाँ पधारने की कृपा कैसे की? आप-लोगों तक तो देहधारियों के मन की भी गति नहीं है, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आप लोग कृपा करके मुझे इसका रहस्य बतलाइये।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- समर्थ विदुर जी! अत्रि मुनि के वचन सुनकर वे तीनों देव हँसे और उनसे सुमधुर वाणी में कहने लगे। देवताओं ने कहा- ब्रह्मन्! तुम सत्यसंकल्प हो। अतः तुमने जैस संकल्प किया था, वही होना चाहिये। उससे विपरीत कैसे हो सकता था? तुम जिस ‘जगदीश्वर’ का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही हैं। प्रिय महर्षे! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे यहाँ हमारे ही अंशरूप तीन जगद्विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे और तुम्हारे सुंदर यश का विस्तार करेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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