श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 32-55

चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 32-55 का हिन्दी अनुवाद


उन्हें इस प्रकार अभीष्ट वर देकर तथा पति-पत्नी दोनों से भलीभाँति पूजित होकर उनके देखते-ही-देखते वे तीनों सुरेश्वर अपने-अपने लोकों को चले गये। ब्रह्मा जी के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से योगवेत्ता दत्तात्रेय जी और महादेव जी के अंश से दुर्वासा ऋषि अत्रि के पुत्ररूप में प्रकट हुए। अब अंगिरा ऋषि की सन्तानों का वर्णन सुनो।

अंगिरा की पत्नी श्रद्धा ने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति- इन चार कन्याओं को जन्म दिया। इनके सिवा उनके साक्षात भगवान उतथ्य जी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पति जी- ये दो पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिष मन्वन्तर में विख्यात हुए। पुलस्त्य के उनकी पत्नी हविर्भू से महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा- ये दो पुत्र हुए। इनमें अगस्त्य जी दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए। विश्रवा मुनि के इडविडा के गर्भ से यक्षराज कुबेर का जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए।

महामते! महर्षि पुलह की स्त्री परमसाध्वी गति से कर्मश्रेष्ठ, वरीयान और सहिष्णु- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। इसी प्रकार क्रतु की पत्नी क्रिया ने ब्रह्मतेज से देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियों को जन्म दिया। शत्रुपात विदुर जी! वसिष्ठ जी की पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती) से चित्रकेतु आदि सात विशुद्ध चित्त ब्रह्मर्षियों का जन्म हुआ। उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान और द्युमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नी से शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए। अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने दध्यंग (दधीचि) नामक एक तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था। अब भृगु के वंश का वर्णन सुनो।

महाभाग भृगु जी ने अपनी भार्या ख्याति से धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्रीकृष्ण नाम की एक भगवत्परायण कन्या उत्पन्न की। मेरु ऋषि ने अपनी आयति और नियति नाम की कन्याएँ क्रमशः धाता और विधाता को ब्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामक पुत्र हुए। उनमें से मृकण्ड के मार्कण्डेय और प्राण के मुनिवर वेदशिरा का जन्म हुआ। भृगु जी के एक कवि नामक पुत्र भी थे। उनके भगवान उशना (शुक्राचार्य) हुए। विदुर जी! इन सब मुनीश्वरों ने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टि का विस्तार किया। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह कर्दम जी के दौहित्रों की सन्तान का वर्णन सुनाया। जो पुरुष इसे श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसके पापों को यह तत्काल नष्ट कर देता है।

ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने मनुनन्दिनी प्रसूति से विवाह किया। उससे उन्होंने सुन्दर नेत्रों वाली सोलह कन्याएँ उत्पन्न कीं। भगवान दक्ष ने उनमें से तेरह धर्म को, एक अग्नि को, एक समस्त पितृगण को और एक संसार का संहार करने वाले तथा जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले भगवान शंकर को दी। श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति- ये धर्म की पत्नियाँ हैं। इनमें से श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शान्ति ने सुख, तुष्टि ने मोद और पुष्टि ने अहंकार को जन्म दिया। क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम और ह्री (लज्जा) ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया। समस्त गुणों की खान मूर्तिदेवी ने नर-नारायण ऋषियों को जन्म दिया। इनका जन्म होने पर इस सम्पूर्ण विश्व ने आनन्दित होकर प्रसन्नता प्रकट की। उस समय लोगों के मन, दिशाएँ, वायु, नदी और पर्वत-सभी में प्रसन्नता छा गयी। आकाश में मांगलिक बाजे बजने लगे, देवता लोग फूलों की वर्षा करने लगे, मुनि प्रसन्न होकर स्तुति करने लगे, गन्धर्व और किन्नर गाने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार उस समय बड़ा ही आनन्द-मंगल हुआ तथा ब्रह्मादि समस्त देवता स्तोत्रों द्वारा भगवान की स्तुति करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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