श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 18-37

अष्टम स्कन्ध: दशमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद


उसी श्रेष्ठ विमान पर राजा बलि सवार थे। सभी बड़े-बड़े सेनापति उनको चारों ओर से घेरे हुए थे। उन पर श्रेष्ठ चमर डुलाये जा रहे थे और छत्र तना हुआ था। उस समय बलि ऐसे जान पड़ते थे, जैसे उदयाचल पर चन्द्रमा। उनके चारों ओर अपने-अपने विमानों पर सेना की छोटी-छोटी टुकड़ियों के स्वामी नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख, द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति, हेति, इल्वल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्रद्रन्ष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शंकुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक, चक्राक्ष शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिपति मय, पौलोम कालेय और निवातकवच आदि स्थित थे। ये सब-के-सब समुद्र मन्थन में सम्मिलित थे। परन्तु इन्हें अमृत का भाग नहीं मिला, केवल क्लेश ही हाथ लगा था। इन सब असुरों ने एक नहीं, अनेक बार युद्ध में देवताओं को पराजित किया था। इसलिये वे बड़े उत्साह से सिंहनाद करते हुए अपने घोर स्वर वाले शंख बजाने लगे।

इन्द्र ने देखा कि हमारे शत्रुओं का मन बढ़ रहा है, ये मदोन्मत्त हो रहे हैं; तब उन्हें बड़ा क्रोध आया। वे अपने वाहन ऐरावत नामक दिग्गज पर सवार हुए। उसके कपोलों से मद बह रहा था। इसलिये इन्द्र की शोभा हुई, मानो भगवान् सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ हों और उससे अनेकों झरने बह रहे हों। इन्द्र के चारों ओर अपने-अपने वाहन, ध्वजा और आयुधों से युक्त देवगण एवं अपने-अपने गणों के साथ वायु, अग्नि, वरुण आदि लोकपाल हो लिये। दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गयीं। दो-दो की जोड़ियाँ बनाकर वे लोग लड़ने लगे। कोई आगे बढ़ रहा था, तो कोई नाम ले-लेकर ललकार रहा था। कोई-कोई मर्मभेदी वचनों के द्वारा अपने प्रतिद्वन्दी को धिक्कार रहा था।

बलि इन्द्र से, स्वामि कार्तिक तारकासुर से, वरुण हेति से और मित्र प्रहेति से भिड़ गये। यमराज कालनाभ से, विश्वकर्मा मय से, शम्बरासुर त्वष्टा से तथा सविता विरोचन से लड़ने लगे। नमुचि अपराजित से, अश्विनीकुमार वृषपर्वा से तथा सूर्यदेव बलि के बाण आदि सौ पुत्रों से युद्ध करने लगे। राहु के साथ चन्द्रमा और पुलोमा के साथ वायु के युद्ध हुआ। भद्रकाली देवी निशुम्भ और शुम्भ पर झपट पड़ीं।

परीक्षित! जम्भासुर से महादेव जी की, महिषासुर से अग्निदेव की वातापि तथा इल्वल से ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि की ठन गयी। दुर्मर्ष की कामदेव से, उत्कल की मातृगणों से, शुक्राचार्य की बृहस्पति से और नरकासुर की शनैश्चर से लड़ाई होने लगी। निवात कवचों के साथ मरुद्गण, कालेयों के साथ वसुगण, पौलोमों के साथ विश्वेदेवगण तथा क्रोधावशों के साथ रुद्रगण का संग्राम होने लगा।

इस प्रकार असुर और देवता रणभूमि में द्वन्द युद्ध और सामूहिक आक्रमण द्वारा एक-दूसरे से भिड़कर परस्पर विजय की इच्छा से उत्साहपूर्वक तीखे बाण, तलवार और भालों से प्रहार करने लगे। वे तरह-तरह से युद्ध कर रहे थे। भुशुण्डि, चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टिश, शक्ति, उल्मुक, प्रास, फरसा, तलवार, भाले, मुद्गर, परिघ और भिन्दिपाल से एक-दूसरे का सिर काटने लगे। उस समय अपने सवारों के साथ हाथी, घोड़े, रथ आदि अनेकों प्रकार के वाहन और पैदल सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। किसी की भुजा, किसी की जंघा, किसी की गरदन और किसी के पैर कट गये तो किसी-किसी की ध्वजा, धनुष, कवच और आभूषण ही टुकड़े-टुकड़े हो गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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