श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 33-43

सप्तम स्कन्ध: द्वितीयोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 33-43 का हिन्दी अनुवाद


‘हाय! विधाता बड़ा क्रूर है। स्वामिन्! उसी ने आज आपको हमारी आँखों से ओझल कर दिया। पहले तो आप समस्त देशवासियों के जीवनदाता थे। आज उसी ने आपको ऐसा बना दिया कि आप हमारा शोक बढ़ा रहे हैं।

पतिदेव! आप हमसे बड़ा प्रेम करते थे, हमारी थोड़ी-सी सेवा को भी बड़ी करके मानते थे। हाय! अब आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी। हम आपके चरणों की चेरी हैं। वीरवर! आप जहाँ जा रहे हैं, वहीं चलने की हमें भी आज्ञा दीजिये’। वे अपने पति की लाश पकड़कर इसी प्रकार विलाप करती रहीं। उस मुर्दे को वहाँ से दाह के लिये जाने देने की उनकी इच्छा नहीं होती थी। इतने में ही सूर्यास्त हो गया। उस समय उशीनर राजा के सम्बन्धियों ने जो विलाप किया था, उसे सुनकर वहाँ स्वयं यमराज बालक के वेष में आये और उन्होंने उन लोगों से कहा।

यमराज ने कहा- बड़े आश्चर्य की बात है। ये लोग तो मुझसे सयाने हैं। बराबर लोगों का मरना-जीना देखते हैं, फिर भी इतने मूढ़ हो रहे हैं। अरे! यह मनुष्य जहाँ से आया था, वहीं चला गया। इन लोगों को भी एक-न-एक दिन वहीं जाना है। फिर झूठमूठ ये लोग इतना शोक क्यों करते हैं? हम तो तुमसे लाख गुने अच्छे हैं, परम धन्य हैं; क्योंकि हमारे माँ-बाप ने हमें छोड़ दिया है। हमारे शरीर में पर्याप्त बल भी नहीं है, फिर भी हमें कोई चिन्ता नहीं है। भेड़िये आदि हिंसक जन्तु हमारा बाल भी बाँका नहीं कर पाते। जिसने गर्भ में रक्षा की थी, वही इस जीवन में भी हमारी रक्षा करता रहता है। देवियों! जो अविनाशी ईश्वर अपनी मौज से इस जगत् को बनाता है, रखता है और बिगाड़ देता है-उस प्रभु का यह एक खिलौना मात्र है। वह इस चराचर जगत् को दण्ड या पुरस्कार देने में समर्थ है। भाग्य अनुकूल हो तो रास्ते में गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। परन्तु भाग्य के प्रतिकूल होने पर घर के भीतर तिजोरी में रखी हुई वस्तु भी खो जाती है। जीव बिना किसी सहारे के दैव की दयादृष्टि से जंगल में भी बहुत दिनों तक जीवित रहता है, परन्तु दैव के विपरीत होने पर घर में सुरक्षित रहने पर भी मर जाता है।

रानियों! सभी प्राणियों की मृत्यु अपने पूर्वजन्मों की कर्मवासना के अनुसार समय पर होती है और उसी के अनुसार उनका जन्म भी होता है। परन्तु आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न है, इसलिये वह उसमें रहने पर भी उसके जन्म-मृत्यु आदि धर्मों से अछूता ही रहता है। जैसे मनुष्य अपने मकान को अपने से अलग और मिट्टी का समझता है, वैसे ही यह शरीर भी अलग और मिट्टी का है। मोहवश वह इसे अपना समझ बैठता है। जैसे बुलबुले आदि पानी के विकार, घड़े आदि मिट्टी के विकार और गहने आदि स्वर्ण के विकार समय पर बनते हैं, रूपान्तरित होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही इन्हीं तीनों के विकार से बना हुआ यह शरीर भी समय पर बन-बिगड़ जाता है।

जैसे काठ में रहने वाली व्यापक अग्नि स्पष्ट ही उससे अलग है, जैसे देह में रहने पर भी वायु का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसे आकाश सब जगह एक-सा रहने पर भी किसी के दोष-गुण से लिप्त नहीं होता-वैसे ही समस्त देहेन्द्रियों में रहने वाला और उनका आश्रय आत्मा भी उनसे अलग और निर्लिप्त है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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