श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 44-52

सप्तम स्कन्ध: द्वितीयोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 44-52 का हिन्दी अनुवाद


मूर्खों! जिसके लिये तुम सब शोक कर रहे हो, वह सुयज्ञ नाम का शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है। तुम लोग इसी को देखते थे। इसमें जो सुनने वाला और बोलने वाला था, वह तो कभी किसी को नहीं दिखायी पड़ता था। फिर आज भी नहीं दिखायी दे रहा है, तो शोक क्यों?

(तुम्हारी यह मान्यता कि ‘प्राण ही बोलने या सुनने वाला था, सो निकल गया’ मूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्ति के समय प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता है।) शरीर में सब इन्द्रियों की चेष्टा का हेतुभूत जो महाप्राण है, वह प्रधान होने पर भी बोलने या सुनने वाला नहीं है; क्योंकि वह जड है। देह और इन्द्रियों के द्वारा सब पदार्थों का द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनों से पृथक् है। यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है, व्यापक है-फिर भी पंचभूत, इन्द्रिय और मन से युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरों को ग्रहण करता और अपने विवेक बल से मुक्त भी जो जाता है। वास्तव में वह इन सबसे अलग है। जब तक वह पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन-इन सत्रह तत्त्वों से बने हुए लिंग शरीर से युक्त रहता है, तभी तक कर्मों से बँधा रहता है और इस बन्धन के कारण ही माया से होने वाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं।

प्रकृति के गुणों और उनसे बनी हुई वस्तुओं को सत्य समझना अथवा कहना झूठमूठ का दुराग्रह है। मनोरथ के समय की कल्पित और स्वप्न के समय की दीख पड़ने वाली वस्तुओं के समान इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, सब मिथ्या है। इसलिये शरीर और आत्मा का तत्त्व जानने वाले पुरुष न तो अनित्य शरीर के लिये शोक करते हैं और न नित्य आत्मा के लिये ही। परन्तु ज्ञान की दृढ़ता न होने के कारण जो लोग शोक करते रहते हैं, उनका स्वभाव बदलना बहुत कठिन है।

किसी जंगल में एक बहेलिया रहता था। वह बहेलिया क्या था, विधाता ने मानो उसे पक्षियों के कालरूप में ही रच रखा था। जहाँ-कहीं भी वह जाल फैला देता और ललचाकर चिड़ियों को फँसा लेता। एक दिन उसने कुलिंग पक्षी के एक जोड़े को चारा चुगते देखा। उनमें से उस बहेलिये ने मादा पक्षी को तो शीघ्र ही फँसा लिया। कालवश वह जाल के फंदों में फँस गयी। नर पक्षी को अपनी मादा की विपत्ति को देखकर बड़ा दुःख हुआ। वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेह से उस बेचारी के लिये विलाप करने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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