श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 17-32

सप्तम स्कन्ध: द्वितीयोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर! भाई की मृत्यु से हिरण्यकशिपु को बड़ा दुःख हुआ था। जब उसने उसकी अन्त्येष्टि क्रिया से छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु और उत्कच अपने इन भतीजों को सान्त्वना दी। उनकी माता रुषाभानु को और अपनी माता दिति को देश-काल के अनुसार मधुर वाणी से समझाते हुए कहा।

हिरण्यकशिपु ने कहा- मेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो! तुम्हें वीर हिरण्याक्ष के लिये किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिये। वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरों के लिये ऐसी ही मृत्यु श्लाघनीय होती है। देवि! जैसे प्याऊ पर बहुत-से लोग इकट्ठे हो जाते हैं, परन्तु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देर के लिये ही होता है-वैसे ही अपने कर्मों के फेर से दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं। वास्तव में आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदि से पृथक् है। वह अपनी अविद्या से ही देह आदि की सृष्टि करके भोगों के साधन सूक्ष्म शरीर को स्वीकार करता है। जैसे हिलते हुए पानी के साथ उसमें प्रतिबिम्बित होने वाले वृक्ष भी हिलते-से जान पड़ते हैं और घुमायी जाती हुई आँख के साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है।

कल्याणी! वैसे ही विषयों के कारण मन भटकने लगता है और वास्तव में निर्विकार होने पर भी उसी के समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है। उसका स्थूल और सूक्ष्म-शरीरों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह सम्बन्धी-सा जान पड़ता है। सब प्रकार से शरीर रहित आत्मा को शरीर समझ लेना-यही तो अज्ञान है। इसी से प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओं का मिलना और बिछुड़ना होता है। इसी से कर्मों के साथ सम्बन्ध हो जाने के कारण संसार में भटकना पड़ता है। जन्म, मृत्यु, अनेकों प्रकार के शोक, अविवेक, चिन्ता और विवेक की विस्मृति-सबका कारण यह अज्ञान ही है। इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास मरे हुए मनुष्य के सम्बन्धियों के साथ यमराज की बातचीत है। तुम लोग ध्यान से उसे सुनो।

उशीनर देश में एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका नाम था सुयज्ञ। लड़ाई में शत्रुओं ने उसे मार डाला। उस समय उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर बैठ गये। उसका जड़ाऊ कवच छिन्न-भिन्न हो गया था। गहने और मालाएँ तहस-नहस हो गयी थीं। बाणों की मार से कलेजा फट गया था। शरीर खून से लथपथ था। बाल बिखर गये थे। आँखें धँस गयी थीं। क्रोध के मारे दाँतों से उसके होठ दबे हुए थे। कमल के समान मुख धूल से ढक गया था। युद्ध में उसके शस्त्र और बाँहें कट गयी थीं। रानियों को दैववश अपने पतिदेव उशीनर नरेश की यह दशा देखकर बड़ा दुःख हुआ। वे ‘हा नाथ! हम अभागिनें तो बेमौत मारी गयीं।’ यों कहकर बार-बार जोर से छाती पीटती हुई अपने स्वामी के चरणों के पास गिर पड़ीं। वे जोर-जोर से इतना रोने लगीं कि उनके कुच-कुंकुम से मिलकर बहते हुए लाल-लाल आँसुओं से प्रियतम के पादपद्म पखार दिये। उनके केश और गहने इधर-उधर बिखर गये। वे करुण-क्रन्दन के साथ विलाप कर रही थीं, जिसे सुनकर मनुष्यों के हृदय में शोक का संचार हो जाता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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