श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 36-54

षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 36-54 का हिन्दी अनुवाद


उस समय भगवान् गरुड़ के कंधों पर चरण रखे हुए थे। विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट आठ भुजाएँ थीं; उनके चक्र, शंख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष ,पाश और गदा धारण किये हुए। वर्षाकालीन मेघ के समन श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा था। मुखमण्डल प्रफुल्लित था। नेत्रों से प्रमाद की वर्षा हो रही थी। घुटनों तक वनमाला लटक रही थी। वक्षःस्थल पर सुनहरी रेखा-श्रीवत्स चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। बहुमूल्य किरीट, कंगन, मकराकृत कुण्डल, करधनी, अँगूठी, कड़े, नूपुर और बाजूबंद अपने-अपने स्थान पर सुशोभित थे।

त्रिभुवनपति भगवान् ने त्रैलोक्यविमोहन रूप धारण कर रखा था। नारद, नन्द, सुनन्द आदि पार्षद उनके चारों ओर खड़े थे। इन्द्र आदि देवेश्वरगण स्तुति कर रहे थे तथा सिद्ध, गन्धर्व और चारण भगवान् के गुणों का गान कर रहे थे। यह अत्यन्त आश्चर्यमय और अलौलिक रूप देखकर दक्ष प्रजापति कुछ सहम गये। प्रजापति दक्ष ने आनन्द से भरकर भगवान् के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। जैसे झरनों के जल से नदियाँ भर जाती हैं, वैसे ही परमानन्द के उद्रेक से उनकी एक-एक इन्द्रिय भर गयी और आनन्द परवश हो जाने के कारण वे कुछ भी बोल न सके।

परीक्षित! प्रजापति दक्ष अत्यन्त नम्रता से झुककर भगवान् के सामने खड़े हो गये। भगवान् सबके हृदय की बात जानते ही हैं, उन्होंने दक्ष प्रजापति की भक्ति और प्रजावृद्धि की कामना देखकर उनसे यों कहा।

श्रीभगवान् ने कहा- परम भाग्यवान् दक्ष! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी, क्योंकि मुझ पर श्रद्धा करने से तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति परम प्रेमभाव का उदय हो गया है। प्रजापते! तुमने इस विश्व की वृद्धि के लिये तपस्या की है, इसलिये मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। क्योंकि यह मेरी ही इच्छा है कि जगत् के समस्त प्राणी अभिवृद्ध और समृद्ध हों। ब्रह्मा, शंकर, तुम्हारे जैसे प्रजापति, स्वयाम्भुव आदि मनु तथा इन्द्रादि देवेश्वर-ये सब मेरी विभूतियाँ हैं और सभी प्राणियों की अभिवृद्धि करने वाले हैं।

ब्रह्मन्! तपस्या मेरा हृदय है, विद्या शरीर है, कर्म आकृति है, यज्ञ अंग हैं, धर्म मन है और देवता प्राण हैं। जब यह सृष्टि नहीं थी, तब केवल मैं ही था और वह भी निष्क्रिय रूप में। बाहर-भीतर कहीं भी और कुछ न था। न तो कोई द्रष्टा था और न दृश्य। मैं केवल ज्ञानस्वरूप और अव्यक्त था। ऐसा समझ लो, मानो सब ओर सुषुप्ति-ही-सुषुप्ति छा रही हो। प्रिय दक्ष! मैं अनन्त गुणों का आधार एवं स्वयं अनन्त हूँ। जब गुणमयी माया के क्षोभ से यह ब्रह्माण्ड-शरीर प्रकट हुआ, तब इसमें अयोनिज आदि पुरुष ब्रह्मा उत्पन्न हुए। जब मैंने उनमे शक्ति और चेतना का संचार किया, तब देवशिरोमणि ब्रह्मा सृष्टि करने के लिये उद्यत हुए। परन्तु उन्होंने अपने को सृष्टि कार्य में असमर्थ-सा पाया। उस समय मैंने उन्हें आज्ञा दी कि तप करो। तब उन्होंने घोर तपस्या की और उस तपस्या के प्रभाव से पहले-पहल तुम नौ प्रजापतियों की सृष्टि की।

प्रिय दक्ष! देखो, यह पंचजन प्रजापति की कन्या असिक्नी है। इसे तुम अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण करो। अब तुम गृहस्थोचित स्त्री सहवासरूप धर्म को स्वीकार करो। यह असिक्नी भी उसी धर्म को स्वीकार करेगी। तब तुम इसके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न कर सकोगे। प्रजापते! अब तक तो मानसी सृष्टि होती थी, परन्तु अब तुम्हारे बाद सारी प्रजा मेरी माया से स्त्री-पुरुष के संयोग से ही उत्पन्न होगी तथा मेरी सेवा में तत्पर रहेगी।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- विश्व के जीवनदाता भगवान् श्रीहरि यह कहकर दक्ष के सामने ही इस प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे स्वप्न में देखी हुई वस्तु स्वप्न टूटते ही लुप्त हो जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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