श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 34-47

षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद


विभिन्न देवताओं के रूप में नाम और रूप के भेद से उन्हीं की कल्पना हुई है। सभी पुरुष-चाहे किसी भी देवता की उपासना करें-उन्हीं की उपासना करते हैं। ठीक वैसे ही स्त्रियों के लिये भगवान् ने पति का रूप धारण किया है। वे उनकी उसी रूप में पूजा करती हैं। इसलिये प्रिये! अपना कल्याण चाहने वाली पतिव्रता स्त्रियाँ अनन्य प्रेमाभाव से अपने पतिदेव की ही पूजा करती हैं; क्योंकि पतिदेव ही उनके परम प्रियतम आत्मा और ईश्वर हैं।

कल्याणी! तुमने बड़े प्रेमाभाव से, भक्ति से मेरी वैसी ही पूजा की है। अब मैं तुम्हारी सब अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। असतियों के जीवन में ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ है।

दिति ने कहा- ब्रह्न्! इन्द्र ने विष्णु के हाथों मेरे दो पुत्र मरवाकर मुझे निपूती बना दिया है। इसलिये यदि आप मुझे मुँह माँगा वर देना चाहते हैं तो कृपा करके एक ऐसा अमर पुत्र दीजिये, जो इन्द्र को मार डाले।

परीक्षित! दिति की बात सुनकर कश्यप जी खिन्न होकर पछताने लगे। वे मन-ही-मन कहने लगे- ‘हाय! हाय! आज मेरे जीवन में बहुत बड़े अधर्म का अवसर आ पहुँचा। देखो तो सही, अब मैं इन्द्रियों के विषयों में सुख मानने लगा हूँ। स्त्रीरूपिणी माया ने मेरे चित्त को अपने वश में कर लिया है। हाय! हाय! आज मैं कितनी दीन-हीन अवस्था में हूँ। अवश्य ही अब मुझे नरक में गिरना पड़ेगा। इस स्त्री का कोई दोष नहीं है; क्योंकि इसने अपने जन्मजात स्वभाव का ही अनुसरण किया है। दोष मेरा है-जो मैं अपनी इन्द्रियों को अपने वश में न रख सका, अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ को न समझ सका। मुझ मूढ़ को बार-बार धिक्कार है। सच है, स्त्रियों के चरित्र को कौन जानता है। इनका मुँह तो ऐसा होता है जैसे शरद् ऋतु का खिला हुआ कमल। बातें सुनने में ऐसी मीठी होती हैं, मानो अमृत घोल रखा हो। परन्तु हृदय, वह तो इतना तीखा होता है कि मानो छुरे की पैनी धार हो। इसमें सन्देह नहीं कि स्त्रियाँ अपनी लालसाओं की कठपुतली होती हैं। सच पूछो तो वे किसी से प्यार नहीं करतीं। स्वार्थवश वे अपने पति, पुत्र और भाई तक को मार डालती हैं या मरवा डालती हैं। अब तो मैं कह चुका हूँ कि जो तुम माँगोगी, दूँगा। मेरी बात झूठी नहीं होनी चाहिये। परन्तु इन्द्र भी वध करने योग्य नहीं है। अच्छा, अब इस विषय में मैं यह युक्ति करता हूँ’।

प्रिय परीक्षित! सर्वसमर्थ कश्यप जी ने इस प्रकार मन-ही-मन अपनी भर्त्सना करके दोनों बात बनाने का उपाय सोचा और फिर तनिक रुष्ट होकर दिति से कहा।

कश्यप जी बोले- कल्याणी! यदि तुम मेरे बतलाये हुए व्रत का एक वर्ष तक विधिपूर्वक पालन करोगी तो तुम्हें इन्द्र को मारने वाला पुत्र प्राप्त होगा। परन्तु यदि किसी प्रकार नियमों में त्रुटि हो गयी तो वह देवताओं का मित्र बन जायेगा।

दिति ने कहा- ब्रह्मन्! मैं उस व्रत का पालन करुँगी। आप बतलाइये कि मुझे क्या-क्या करना चाहिये, कौन-कौन से काम छोड़ देने चाहिये और कौन-से काम ऐसे हैं, जिनसे व्रत भंग नहीं होता।

कश्यप जी ने उत्तर दिया- प्रिये! इस व्रत में किसी भी प्राणी को मन, वाणी या क्रिया के द्वारा सताये नहीं, किसी को शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीर के नख और रोएँ न काटे और किसी भी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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