प्रथम स्कन्ध: अष्टम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टम अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद
कुन्ती ने कहा- आप समस्त जीवों के बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियों से देखे नहीं जाते; क्योंकि आप प्रकृति से परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। इन्द्रियों से जो कुछ जाना जाता है, उसकी तह में आप विद्यमान रहते हैं और अपनी ही माया के परदे से अपने को ढके रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तम को भला कैसे जान सकती हूँ? जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नट को प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दीखते हुए भी नहीं दीखते। आप शुद्ध हृदय वाले विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसों के हृदय में अपनी प्रेममयी भक्ति का सृजन करने के लिये अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं। आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्द गोप के लाड़ले लाल गोविन्द को हमारा बारंबार प्रणाम है। जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्म स्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरणकमलों में कमल का चिह्न है- श्रीकृष्ण! ऐसे आपको मेरा बार-बार नमस्कार है। हृषीकेश! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और चिरकाल से शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रों के साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियों से रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं। श्रीकृष्ण! कहाँ तक गिनाऊँ- विष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, हिडिम्ब आदि राक्षसों की दृष्टि से, दुष्टों की द्यूतसभा से, वनवास की विपत्तियों से और अनेक बार के युद्धों में अनेक महारथियों के शस्त्रास्त्रों से और अभी-अभी इस अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भी आपने ही हमारी रक्षा की है। जगद्गुरो! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियाँ आती रहें; क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चितरूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके ही दर्शन हो जाने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता। ऊँचे कुल में जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्ति के कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगों को दर्शन देते हैं, जो अकिंचन है। आप निर्धनों के परम धन हैं। माया का प्रपंच आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप अपने-आप में ही विहार करने वाले, परम शान्तस्वरूप हैं। आप ही कैवल्य मोक्ष के अधिपति हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। मैं आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सबके नियन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती हूँ। संसार के समस्त पदार्थ और प्राणी आपस में टकराकर विषमता के कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परंतु आप सबमें समान रूप से विचर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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