द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 33-45 का हिन्दी अनुवाद
हम लोग केवल जिनके अवतार की लीलाओं का गान ही करते रहते हैं, उनके तत्त्व को नहीं जानते- उन भगवान् के श्रीचरणों में मैं नमस्कार करता हूँ। वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्प में वे स्वयं अपने-आप में अपने-आपकी ही सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं। वे माया के लेश से रहित, केवल ज्ञानस्वरूप हैं और अन्तरात्मा के रूप में एकरस स्थित हैं। वे तीनों काल में सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि न अन्त। वे तीनों गुणों से रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं। नारद! महात्मा लोग जिस समय अपने अन्तःकरण, इन्द्रिय और शरीर को शान्त कर लेते हैं, उस समय उनका साक्षात्कार करते हैं। परन्तु जब असत्पुरुषों के द्वारा कुतर्कों का जाल बिछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते। परमात्मा का पहला अवतार विराट् पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पंचभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियाँ, ब्राह्मण- शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जंगम जीव- सब-के-सब उन अनन्त भगवान् के ही रूप हैं। मैं, शंकर, अन्य भक्तजन, स्वर्गलोक के रक्षक, पक्षियों के राजा, मनुष्य लोक के राजा, नीचे के लोकों के राजा; गन्धर्व, विद्याधर और चारणों के अधिनायक; यक्ष, राक्षस, साँप और नागों के स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेम-पिशाच, भूत-कुष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षियों के स्वामी; एवं संसार में और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल या क्षमा से युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव तथा वर्ण वाली, रूपवान् या अरूप हैं- वे सब-के-सब परमतत्त्वमय भगवत्स्वरूप ही हैं। नारद! इनके सिवा परमपुरुष परमात्मा के परमपवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रों में वर्णित हैं। उनका मैं क्रमशः वर्णन करता हूँ। उनके चरित्र सुनने में बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रिय के दोषों को दूर करने वाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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