श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 11-21

चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 11-21 का हिन्दी अनुवाद


अनन्त परमात्मन्! मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्तों का संग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है; उनके संग से मैं आपके गुणों और लीलाओं की कथा-सुधा को पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकार के दुःखों से पूर्ण भयंकर संसार सागर के उस पार पहुँच जाऊँगा।

कमलनाभ प्रभो! जिनका चित्त आपके चरणकमल की सुगन्ध से लुभाया हुआ है, उन महानुभावों का जो लोग संग करते हैं- वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदि की सुधि भी नहीं करते।

अजन्मा परमेश्वर! मैं तो पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी, सरीसृप (सर्पादि रेंगने वाले जन्तु), देवता, दैत्य और मनुष्य आदि से परिपूर्ण तथा महदादि अनेकों कारणों से सम्पादित आपके इस सदसदात्मक स्थूल विश्वरूप को ही जनता हूँ; इससे परे जो आपका परमस्वरूप है, जिसमें वाणी की गति नहीं है, उसका मुझे पता नहीं है।

भगवन्! कल्प का अन्त होने पर योगनिद्रा में स्थित जो परमपुरुष इस सम्पूर्ण विश्व को अपने उदर में लीन करके शेषजी के साथ उन्हीं की गोद में शयन करते हैं तथा जिनके नाभि-समुद्र से प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमल से परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान् आप ही है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

प्रभो! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टि से बुद्धि की सभी अवस्थाओं के साक्षी हैं तथा नित्यमुक्त शुद्धसत्त्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, षडैश्वर्य-सम्पन्न एवं तीनों गुणों के अधीश्वर हैं। आप जीव से सर्वथा भिन्न हैं तथा संसार की स्थति के लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूप से विराजमान हैं। आपसे ही विद्या-अविद्या आदि विरुद्ध गतियों वाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूप से निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। आप जगत् के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपकी शरण हूँ। भगवन्! आप परमानन्द मूर्ति हैं- जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभाव से आपका निरन्तर भजन करते रहते हैं, उनके लिये राज्यादि भोगों की अपेक्षा आपके चरणकमलों की प्राप्ति ही भजन का सच्चा फल है। स्वामिन्! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंत के जन्में हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तों पर कृपा करने के लिये निरन्तर विकल रहने के कारण हम-जैसे सकाम जीवों की भी कामना पूर्ण करते उनकी संसार-भय से रक्षा करते रहते हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जब शुभ संकल्प वाले मतिमान् ध्रुव जी ने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे।

श्रीभगवान् ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार! मैं तेरे हृदय का संकल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पद का प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो।

भद्र! जिस तेजोमय अविनाशी लोक को आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागण ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढी के[1] चारों ओर दँवरी के बैल घूमते रहते हैं। अवान्तर कल्पपर्यन्त रहने वाले अन्य लोकों का नाश हो जाने पर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागण के सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कटी हुई फ़सल धान-गेहूँ आदि को कुचलने के लिए घुमाये जाने वाले बैल जिस खम्बे में बँधे रहते हैं, उसका नाम मेढी है।

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