श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 37-45

चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 37-45 का हिन्दी अनुवाद


लोकपालों ने कहा- अनन्त परमात्मन्! आप समस्त अन्तःकरण के साक्षी हैं, यह सारा जगत् आपके ही द्वारा देखा जाता है। तो क्या मायिक पदार्थों को ग्रहण करने वाली हमारी इन नेत्र आदि इन्द्रियों से कभी आप प्रत्यक्ष हो सके हैं? वस्तुतः आप हैं तो पंचभूतों से पृथक्; फिर भी पांचभौतिक शरीरों के साथ जो आपका सम्बन्ध प्रतीत होता है, यह आपकी माया ही है।

योगेश्वरों ने कहा- प्रभो! जो पुरुष सम्पूर्ण विश्व के आत्मा आपमें और अपने में कोई भेद नहीं देखता, उससे अधिक प्यारा आपको कोई नहीं है। तथापि भक्तवत्सल! जो लोग आपमें स्वामिभाव रखकर अनन्य भक्ति से आपकी सेवा करते हैं, उन पर भी आप कृपा कीजिये। जीवों के अदृष्टवश जिसके सत्त्वादि गुणों में बड़ी विभिन्नता आ जाती है, उस अपनी माया के द्वारा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये ब्रह्मादि विभिन्न रूप धारण करके आप भेदबुद्धि पैदा कर देते हैं; किन्तु अपनी स्वरूप-स्थिति से आप उस भेदज्ञान और उसके कारण सत्त्वादि गुणों से सर्वथा दूर हैं। ऐसे आपको हमारा नमस्कार है।

ब्रह्मस्वरूप वेद ने कहा- आप ही धर्मादि की उत्पत्ति के लिये शुद्ध सत्त्व को स्वीकार करते हैं, साथ ही आप निर्गुण भी हैं। अतएव आपका तत्त्व न तो मैं जानता हूँ और न ब्रह्मादि कोई और ही जानते हैं; आपको नमस्कार है।

अग्निदेव ने कहा- भगवन्! आपके ही तेज से प्रज्वलित होकर मैं श्रेष्ठ यज्ञों में देवताओं के पास घृतमिश्रित हवि पहुँचाता हूँ। आप साक्षात् यज्ञपुरुष एवं यज्ञ की रक्षा करने वाले हैं। अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और पशु-सोम- ये पाँच प्रकार के यज्ञ आपके ही स्वरूप हैं तथा ‘आश्रावय’, अस्तु श्रौषट्’, ‘यजे’, ‘ये यजामहे’ और ‘वषट्’- इन पाँच प्रकार के यजुर्मन्त्रों से आपका ही पूजन होता है। मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

देवताओ ने कहा- देव! आप आदिपुरुष हैं। पूर्वकल्प का अन्त होने पर अपने कार्यरूप इस प्रपंच को उदर में लीन कर आपने ही प्रलयकालीन जल के भीतर शेषनाग की उत्तम शय्या पर शयन किया था। आपके अध्यात्मिक स्वरूप का जनलोकादिवासी सिद्धगण भी अपने हृदय में चिन्तन करते हैं। अहो! वही आप आज हमारे नेत्रों के विषय होकर अपने भक्तों की रक्षा कर रहे हैं।

गन्धर्वों ने कहा- देव! मरीचि आदि ऋषि और ये ब्रह्मा, इन्द्र तथा रुद्रादि देवतागण आपके अंश के भी अंश हैं। महत्तम! यह सम्पूर्ण विश्व आपके खेल की सामग्री है। नाथ! ऐसे आपको हम सर्वदा प्रणाम करते हैं।

विद्याधरों ने कहा- प्रभो! परम पुरुषार्थ की प्राप्ति के साधनरूप इस मानवदेह को पाकर भी जीव आपकी माया से मोहित होकर इसमें मैं-मेरेपन का अभिमान कर लेता है। फिर वह दुर्बुद्धि अपने आत्मीयों से तिरस्कृत होने पर भी असत् विषयों की ही लालसा करता रहता है। किन्तु ऐसी अवस्था में भी जो आपके कथामृत का सेवन करता है, वह इस अन्तःकरण के मोह को सर्वथा त्याग देता है।

ब्राह्मणों ने कहा- भगवन्! आप ही यज्ञ हैं, आप ही हवि हैं, आप ही अग्नि हैं, स्वयं आप ही मन्त्र हैं; आप ही समिधा, कुशा और यज्ञपात्र हैं तथा आप ही सदस्य, ऋत्विज्, यजमान एवं उसकी धर्मपत्नी, देवता, अग्निहोत्र, स्वधा, सोमरस, घृत और पशु हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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