श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 28-36

चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 28-36 का हिन्दी अनुवाद


सदस्यों ने कहा- जीवों को आश्रय देने वाले प्रभो! जो अनेक प्रकार के क्लेशों के कारण अत्यन्त दुर्गम है, जिसमें कालरूप भयंकर सर्प ताक में बैठा हुआ है, द्वन्दरूप अनेकों गढ़े हैं, दुर्जनरूप जंगली जीवों का भय है तथा शोकरूप दावानल धधक रहा है-ऐसे, विश्राम-स्थल से रहित संसार मार्ग में जो अज्ञाघननी जीव कामनाओं से पीड़ित होकर विषयरूप मृगतृष्णा जल के लिये ही देह-गेह का भारी बोझा सिर पर लिये जा रहे हैं, वे भला आपके चरणकमलों की शरण में कब आने लगे।

रुद्र ने कहा- वरदायक प्रभो! आपके उत्तम चरण इस संसार में सकाम पुरुषों को सम्पूर्ण पुरुषार्थों की प्राप्ति कराने वाले हैं; और जिन्हें किसी भी वस्तु की कामना नहीं है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक पूजन करते हैं। उनमें चित्त लगा रहने के कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे आहार भ्रष्ट कहते हैं, तो कहें; आपके परम अनुग्रह से मैं उनके कहने-सुनने का कोई विचार नहीं करता।

भृगु जी ने कहा- आपकी गहन माया से आत्मज्ञान लुप्त हो जाने के कारण जो अज्ञान-निद्रा में सोये हुए हैं, वे ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञान में उपयोगी आपके तत्त्व को अभी तक नहीं जान सके। ऐसे होने पर भी आप अपने शरणागत भक्तों के तो आत्मा और सुहृद् हैं; अतः आप मुझ पर प्रसन्न होइये।

ब्रह्मा जी ने कहा- प्रभो! पृथक्-पृथक् पदार्थों जानने वाली इन्द्रियों के द्वारा पुरुष जो कुछ देखता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि आप ज्ञान शब्दादि विषय और श्रोत्रादि इन्द्रियों के अधिष्ठान हैं-ये सब आपमें अध्यस्त हैं। अतएव आप इस मायामय प्रपंच से सर्वथा अलग हैं।

इन्द्र ने कहा- अच्युत! आपका यह जगत् को प्रकाशित करने वाला रूप देवद्रोहियों का संहार करने वाली आठ भुजाओं से सुशोभित है, जिनमें आप सदा ही नाना प्रकार के आयुध धारण किये रहते हैं। यह रूप हमारे मन और नेत्रों को परम आनन्द देने वाला है।

याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा- भगवन्! ब्रह्मा जी ने आपके पूजन के लिये ही इस यज्ञ की रचना की थी; परन्तु दक्ष पर कुपित होने के कारण इसे भगवान् पशुपति ने अब नष्ट कर दिया है। यज्ञमूर्ते! श्मशानभूमि के समान उत्सवहीन हुए हमारे उस यज्ञ को आप नील कमल की-सी कान्तिवाले अपने नेत्रों से निराहार पवित्र कीजिये।

ऋषियों ने कहा- भगवन्! आपकी लीला बड़ी ही अनोखी है; क्योंकि आप कर्म करते हुए भी उनसे निर्लेप रहते हैं। दूसरे लोग वैभव की भूख से जिन लक्ष्मी जी की उपासना करते हैं, वे स्वयं आपकी सेवा में लगी रहती हैं; तो भी आप उनका मान नहीं करते, उनसे निःस्पृह रहते हैं।

सिद्धों ने कहा- प्रभो! यह हमारा मनरूप हाथी नाना प्रकार के क्लेश रूप दावानल से दग्ध एवं अत्यन्त तृषित होकर आपकी कथा रूप विशुद्ध अमृतमयी सरिता में घुसकर गोता लगाये बैठा है। वहाँ ब्रह्मानन्द में लीन-सा हो जाने के कारण उसे न तो संसाररूप दावानल का ही स्मरण है और न वह उस नदी से बाहर ही निकलता है।

यजमानपत्नी ने कहा- सर्वसमर्थ परमेश्वर! आपका स्वागत है। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप मुझ पर प्रसन्न होइये। लक्ष्मीपते! अपनी प्रिय लक्ष्मी जी के सहित आप हमारी रक्षा कीजिये। यज्ञेश्वर! जिस प्रकार सिर के बिना मनुष्य का धड़ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार अन्य अंगों से पूर्ण होने पर भी आपके बिना यज्ञ की शोभा नहीं होती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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