श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 32-47

चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद


श्रीनारद जी कहा- वीरवर! जब राजा पुरंजन ने अधीर-से होकर इस प्रकार याचना की, तब उस बाला ने भी हँसते हुए उसका अनुमोदन किया। वह भी राजा को देखकर मोहित हो चुकी थी। वह कहने लगी, ‘नरश्रेष्ठ! हमें अपने उत्पन्न करने वाले का ठीक-ठीक पता नहीं है और न हम अपने या किसी दूसरे के नाम या गोत्र को ही जानती हैं। वीरवर! आज हम सब इस पुरी में हैं- इसके सिवा मैं और कुछ नहीं जानती; मुझे इसका भी पता नहीं है कि हमारे रहने के लिये यह पुरी किसने बनायी है।

प्रियवर! ये पुरुष मेरे सखा और स्त्रियाँ मेरी सहेलियाँ हैं तथा जिस समय मैं सो जाती हूँ, यह सर्प जागता हुआ इस पुरी की रक्षा करता रहता है। शत्रुदमन! आप यहाँ पधारे, यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। आपका मंगल हो। आपको विषय-भोगों-की इच्छा है, उसकी पूर्ति के लिये मैं अपने साथियों सहित सभी प्रकार के भोग प्रस्तुत करती रहूँगी। प्रभो! इस नौ द्वारों वाली पुरी में मेरे प्रस्तुत किये हुए इच्छित भोगों को भोगते हुए आप सैकड़ों वर्षों तक निवास कीजिये। भला, आपको छोड़कर मैं और किसके साथ रमण करुँगी? दूसरे लोग तो न रति सुख को जानते हैं, न विहित भोगों को ही भोगते हैं, न परलोक का ही विचार करते हैं और न कल क्या होगा- इसका ही ध्यान रखते हैं, अतएव पशुतुल्य हैं। अहो! इस लोक में गृहस्थाश्रम में ही धर्म, अर्थ, काम, सन्तान-सुख, मोक्ष, सुयश और स्वर्गादि दिव्य लोकों की प्राप्ति हो सकती है। संसारत्यागी यतिजन तो इन सबकी कल्पना भी नहीं कर सकते।

महापुरुषों का कथन है कि इस लोक में पितर, देव, ऋषि, मनुष्य तथा सम्पूर्ण प्राणियों के और अपने भी कल्याण का आश्रय एकमात्र गृहस्थाश्रम ही है। वीरशिरोमणे! लोक में मेरी-जैसी कौन स्त्री होगी, जो स्वयं प्राप्त हुए आप-जैसे सुप्रसिद्ध, उदारचित्त और सुन्दर पति को वरण न करेगी। महाबाहो! इस पृथ्वी पर आपकी साँप-जैसी गोलाकार सुकोमल भुजाओं में स्थान पाने के लिये किस कामिनी का चित्त न ललचावेगा? आप तो अपनी मधुर मुसकानमयी करुणापूर्ण दृष्टि से हम-जैसी अनाथाओं के मानसिक सन्ताप को शान्त करने के लिये ही पृथ्वी में विचर रहे हैं’।

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन्! उन स्त्री-पुरुषों ने इस प्रकार एक-दूसरे की बात का समर्थन कर फिर सौ वर्षों तक उस पुरी में रहकर आनन्द भोगा। गायक लोग सुमधुर स्वर में जहाँ-तहाँ राजा पुरंजन की कीर्ति गाया करते थे। जब ग्रीष्म-ऋतु आती, तब वह अनेकों स्त्रियों के साथ सरोवर में घुसकर जलक्रीड़ा करता। उस नगर में जो नौ द्वार थे, उनमें से सात नगरी के ऊपर और दो नीचे थे। उस नगर का जो कोई राजा होता, उसके पृथक्-पृथक् देशों में जाने के लिये ये द्वार बनाये गये थे। राजन्! इनमें से पाँच पूर्व, एक दक्षिण, एक उत्तर और दो पश्चिम की ओर थे। उनके नामों का वर्णन करता हूँ। पूर्व की ओर खाद्योत और आविर्मुखी नाम के दो द्वार एक ही जगह बनाये गये थे। उनमें होकर राजा पुरंजन अपने मित्र द्युमान् के साथ विभ्राजित नामक देश को जाया करता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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