चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 31-43 का हिन्दी अनुवाद
भगवान् स्वरूपतः विशुद्ध विज्ञानघन और समस्त विशेषणों से रहित हैं; किन्तु इस कर्ममार्ग में जौ-चावल आदि विविध द्रव्य, शुक्लादि गुण, अवघात (कूटना) आदि क्रिया एवं मन्त्रों के द्वारा और अर्थ, आशय (संकल्प), लिंग (पदार्थ-शक्ति) तथा ज्योतिष्टोम आदि नामों से सम्पन्न होने वाले, अनेक विशेषण युक्त यज्ञ के रूप में प्रकाशित होते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नि भिन्न-भिन्न काष्ठों में उन्हीं के आकारादि के अनुरूप भासती है, उसी प्रकार वे सर्वव्यापक प्रभु परमानन्दस्वरूप होते हुए भी प्रकृति, काल, वासना और अदृष्टि से उत्पन्न हुए शरीर में विषयाकार बनी हुई बुद्धि में स्थित होकर उन यज्ञ-यागादि क्रियाओं के फलरूप से अनेक प्रकार के जान पड़ते हैं। अहो! इस पृथ्वीतल पर मेरे जो प्रजाजन यज्ञ-भोक्ताओं के अधीश्वर सर्वगुरु श्रीहरि का एकनिष्ठ भाव से अपने-अपने धर्मों के द्वारा निरन्तर पूजन करते हैं, वे मुझ पर बड़ी कृपा करते हैं। सहनशीलता, तपस्या और ज्ञान इन विशिष्ट विभूतियों के कारण वैष्णव और ब्राह्मणों के वंश स्वभावतः ही उज्ज्वल होते हैं। उन पर राजकुल का तेज, धन, ऐश्वर्य आदि समृद्धियों के कारण अपना प्रभाव न डाले। ब्रह्मादि समस्त महापुरुषों में अग्रगण्य, ब्राह्मण भक्त, पुराणपुरुष श्रीहरि ने भी निरन्तर इन्हीं के चरणों की वन्दना करके अविचल लक्ष्मी और संसार को पवित्र करने वाली कीर्ति प्राप्त की है। आप लोग भगवान् के लोक संग्रहरूप धर्म का पालन करने वाले हैं तथा सर्वान्तर्यामी स्वयंप्रकाश ब्राह्मण प्रिय श्रीहरि विप्रवंश की सेवा करने से ही परम सन्तुष्ट होते हैं, अतः आप सभी को सब प्रकार से विनयपूर्वक ब्राह्मण कुल की सेवा करनी चाहिये। इनकी नित्य सेवा करने से शीघ्र ही चित्त शुद्ध हो जाने के कारण मनुष्य स्वयं ही (ज्ञान और अभ्यास आदि के बिना ही) परम शान्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतः लोक में इन ब्राह्मणों से बढ़कर दूसरा कौन है जो हविष्यभोजी देवताओं का मुख हो सके? उपनिषदों के ज्ञानपरक वचन एकमात्र जिनमें ही गतार्थ होते हैं, वे भगवान् अनन्त इन्द्रादि यज्ञीय देवताओं के नाम से तत्त्वज्ञानियों द्वारा ब्राह्मणों के मुख में श्रद्धापूर्वक हवन किये हुए पदार्थ को जैसे चाव से ग्रहण करते हैं, वैसे ही चेतनाशून्य अग्नि में होमे हुए द्रव्य को नहीं ग्रहण करते। सभ्यगण! जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में प्रतिबिम्ब का भान होता है-उसी प्रकार जिससे इस सम्पूर्ण प्रपंच का ठीक-ठीक ज्ञान होता है, उस नित्य, शुद्ध और सनातन ब्रह्म (वेद) को जो परमार्थ-तत्त्व की उपलब्धि के लिये श्रद्धा, तप, मंगलमय आचरण, स्वाध्यायविरोधी वार्तालाप के त्याग तथा संयम और समाधि के अभ्यास द्वारा धारण करते हैं, उन ब्राह्मणों के चरणकमलों की धूलि को मैं आयु पर्यन्त अपने मुकुट पर धारण करूँ; क्योंकि उसे सर्वदा सिर पर चढ़ाते रहने से मनुष्य के सारे पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं और सम्पूर्ण गुण उसकी सेवा करने लगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज