श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 39-50

अष्टम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 39-50 का हिन्दी अनुवाद


जिनके बल से इन्द्र, प्रसन्नता से समस्त देवगण, क्रोध से शंकर, बुद्धि से ब्रह्मा, इन्द्रियों से वेद और ऋषि तथा लिंग से प्रजापति उत्पन्न हुए हैं-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जिनके वक्षःस्थल से लक्ष्मी, छाया से पितृगण, स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, सिर से आकाश और विहार से अप्सराएँ प्रकट हुई हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जिनके मुख से ब्राह्मण और अत्यन्त रहस्यमय वेद, भुजाओं से क्षत्रिय और बल, जंघाओं से वैश्य और उनकी वृत्ति-व्यापार कुशलता तथा चरणों से वेदबाह्य शूद्र और उनकी सेवा आदि वृत्ति प्रकट हुई-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जिनके अधर से लोभ और ओष्ठ से प्रीति, नासिका से कान्ति, स्पर्श से पशुओं का प्रिय काम, भौंहों से यम और नेत्र के रोमों से काल की उत्पत्ति हुई है-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

पंचभूत, काल, कर्म, सत्त्वादि गुण और जो कुछ विवेकी पुरुषों के द्वारा बाधित किये जाने योग्य निर्वचनीय या अनिर्वचनीय विशेष पदार्थ हैं, वे सब-के-सब भगवान् की योगमाया से ही बने हैं-ऐसा शास्त्र कहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जो मायानिर्मित गुणों में दर्शनादि वृत्तियों के द्वारा आसक्त नहीं होते, जो वायु के समान सदा-सर्वदा असंग रहते हैं, जिनमें समस्त शक्तियाँ शान्त हो गयी हैं-उन अपने आत्मानन्द के लाभ से परिपूर्ण आत्मस्वरूप भगवान् को हमारे नमस्कार हैं।

प्रभो! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रों से देखें। आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये। प्रभो! आप समय-समय पर स्वयं ही अपनी इच्छा से अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिये अत्यन्त कठिन होता है, उसे आप सहज में कर देते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं, आपके लिये इसमें कौन-सी कठिनाई है। विषयों के लोभ में पड़कर जो देहाभिमानी दुःख भोग रहे हैं, उन्हें कर्म करने में परिश्रम और क्लेश तो बहुत अधिक होता है; परन्तु फल बहुत कम निकलता है। अधिकांश में तो उनके विफलता ही हाथ लगती है। परन्तु जो कर्म आपको समर्पित किये जाते हैं, उनके करने के समय ही परम सुख मिलता है। वे स्वयं फल रूप ही हैं।

भगवान् को समर्पित किया हुआ छोटे-से-छोटा कर्माभास भी कभी विफल नहीं होता। क्योंकि भगवान् जीव के परम हितैषी, परम प्रियतम और आत्मा ही हैं। जैसे वृक्ष की जड़ को पानी से सींचना उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं और छोटी-छोटी डालियों को भी सींचना है, वैसे ही सर्वात्मा भगवान् की आरधना प्राणियों की और अपनी भी आराधना है। जो तीनों काल और उससे परे भी एकरस स्थित हैं, जिनकी लीलाओं का रहस्य तर्क-वितर्क के परे हैं, जो स्वयं गुणों से परे रहकर भी सब गुणों के स्वामी हैं तथा इस समय सत्त्वगुण में स्थित हैं-ऐसे आपको हम बार-बार नमस्कार करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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