श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 30-38

अष्टम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 30-38 का हिन्दी अनुवाद


जिस माया से मोहित होकर जीव अपने वास्तविक लक्ष्य अथवा स्वरूप को भूल गया है, वह उन्हीं की है और कोई भी उसका पार नहीं पा सकता। परन्तु सर्वशक्तिमान् प्रभु अपनी उस माया तथा उसके गुणों को अपने वश में करके समस्त प्राणियों के हृदय में समभाव से विचरण करते रहते हैं। जीव अपने पुरुषार्थ से नहीं, उनकी कृपा से ही–उन्हें प्राप्त कर सकता है। हम उनके चरणों में नमस्कार करते हैं।

यों तो हम देवता और ऋषिगण भी उनके परमप्रिय सत्त्वमय शरीर से ही उत्पन्न हुए हैं, फिर भी उनके बाहर-भीतर एकरस प्रकट वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते। तब रजोगुण एवं तमोगुण प्रधान असुर आदि तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं? उन्हीं प्रभु के चरणों में हम नमस्कार करते हैं। उन्हीं की बनायीं हुई यह पृथ्वी उनका चरण है। इसी पृथ्वी पर जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-ये चार प्रकार के प्राणी रहते हैं। वे परम स्वतन्त्र, परम ऐश्वर्यशाली पुरुषोत्तम परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों। यह परम शक्तिशाली जल उन्हीं का वीर्य है। इसी से तीनों लोक और समस्त लोकों के लोकपाल उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवित रहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों।

श्रुतियाँ कहती हैं कि चन्द्रमा उस प्रभु का मन है। यह चन्द्रमा समस्त देवताओं का अन्न, बल एवं आयु है। वही वृक्षों का सम्राट् एवं प्रजा की वृद्धि करने वाला है। ऐसे मन को स्वीकार करने वाले परम ऐश्वर्यशाली प्रभु हम पर प्रसन्न हों। अग्नि प्रभु का मुख है। इसकी उत्पत्ति ही इसलिये हुई है कि वेद के यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड पूर्ण रूप से सम्पन्न हो सकें। यह अग्नि ही शरीर के भीतर जठराग्नि रूप से और समुद्र के भीतर बड़वानल के रूप से रहकर उनमें रहने वाले अन्न, जल आदि धातुओं का पाचन करता रहता है और समस्त द्रव्यों की उत्पत्ति भी उसी से हुई है। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों। जिनके द्वारा जीव देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है, जो वेदों की साक्षात् मूर्ति और भगवान् के ध्यान करने योग्य धाम हैं, जो पुण्यलोकस्वरूप होने के कारण मुक्ति के द्वार एवं अमृतमय हैं और कालरूप होने के कारण मृत्यु भी हैं-ऐसे सूर्य जिनके नेत्र हैं, वे परम ऐशवर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

प्रभु के प्राण ही चराचर का प्राण तथा उन्हें मानसिक, शारीरिक और इन्द्रिय सम्बन्धी बल देने वाला वायु प्रकट हुआ है। वह चक्रवर्ती सम्राट् है, तो इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता हम सब उसके अनुचर। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों। जिनके कानों से दिशाएँ, हृदय से इन्द्रियगोलक और नाभि से वह आकाश उत्पन्न हुआ है, जो पाँचों प्राण (प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान), दसों इन्द्रिय, मन, पाँचों असु (नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय) एवं शरीर का आश्रय है-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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