श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 2 श्लोक 24-35

श्रीमद्भागवत माहात्म्य द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य: द्वितीय अध्यायः श्लोक 24-35 का हिन्दी अनुवाद


फिर भी एक स्थान है, जहाँ उद्धव जी का दर्शन हो सकता है। गोवर्धन पर्वत के निकट भगवान की लीला-सहचरी गोपियों की विहार-स्थली है; वहाँ की लता, अंकुर और बेलों के रूप में अवश्य ही उद्धव जी वहाँ निवास करते हैं। लताओं के रूप में उनके रहने का यही उद्देश्य है कि भगवान की प्रियतमा गोपियों की चरणरज उन पर पड़ती रहे। उद्धव जी के सम्बन्ध में एक निश्चित बात यह भी है कि उन्हें भगवान ने अपना उत्सव-स्वरूप प्रदान किया है। भगवान का उत्सव उद्धव जी का अंग है, वे उससे अलग नहीं रह सकते; इसलिये अब तुम लोग वज्रनाभ को साथ लेकर वहाँ जाओ और कुसुम सरोवर के पास ठहरो। भगवद्भक्तों की मण्डली एकत्र करके वीणा, वेणु और मृदंग आदि बाजों के साथ भगवान के नाम और लीलाओं के कीर्तन, भगवत्सम्बन्धी काव्य-कथाओं के श्रवण तथा भगवद्गुण-गान से युक्त सरस संगीतों द्वारा महान् उत्सव का आरम्भ करो। इस प्रकार जब उस महान् उत्सव का विस्तार होगा, तब निश्चय है कि वहाँ उद्धव जी का दर्शन मिलेगा। वे ही भलीभाँति तुम सब लोगों के मनोरथ पूर्ण करेंगे"।

सूत जी कहते हैं- यमुना जी की बतायी हुई बातें सुनकर श्रीकृष्ण की रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने यमुना जी को प्रणाम किया और वहाँ से लौटकर वज्रनाभ तथा परीक्षित से वे सारी बातें कह सुनायीं। सब बातें सुनकर परीक्षित को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वज्रनाभ तथा श्रीकृष्णपत्नियों को उसी समय साथ ले उस स्थान पर पहुँचकर तत्काल वह सब कार्य आरम्भ करवा दिया, जो कि यमुना जी ने बताया था।

गोवर्धन के निकट वृन्दावन के भीतर कुसुम सरोवर जो सखियों की विहार स्थली है, वहाँ ही श्रीकृष्ण कीर्तन का उत्सव आरम्भ हुआ। वृषभानुनन्दिनी श्रीराधा जी तथा उनके प्रियतम श्रीकृष्ण की वह लीला भूमि जब साक्षात् संकीर्तन की शोभा से सम्पन्न हो गयी, उस समय वहाँ रहने वाले सभी भक्तजन एकाग्र हो गये; उनकी दृष्टि, उनके मन की वृत्ति कहीं अन्यत्र न जाती थी। तदनन्तर सबके देखते-देखते वहाँ फैले हुए तृण, गुल्म और लताओं के समूह से प्रकट होकर श्रीउद्धव जी सबके सामने आये। उनका शरीर श्यामवर्ण था, उस पर पीताम्बर शोभा पा रहा था। वे गले में वनमाला और गूंजा की माला धारण किये हुए थे तथा मुख से बारंबार गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं का गान कर रहे थे।

उद्धव जी के आगमन से उस संकीर्तनोत्सव की शोभा कई गुनी बढ़ गयी। जैसे स्फटिक मणि की बनी हुई अट्टालिका की छत पर चाँदनी छिटकने से उसकी शोभा बहुत बढ़ जाती है। उस समय सभी लोग आनन्द के समुद्र में निमग्न हो अपना सब कुछ भूल गये, सुध-बुध खो बैठे। थोड़ी देर बाद जब उनकी चेतना दिव्य लोक से नीचे आयी, अर्थात् जब उन्हें होश हुआ, तब उद्धव जी को भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप में उपस्थित देख, अपना मनोरथ पूर्ण हो जाने के कारण प्रसन्न हो, वे उनकी पूजा करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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