श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 1 श्लोक 13-27

श्रीमद्भागवत माहात्म्य: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य: प्रथम अध्यायः श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद


सम्राट् परीक्षित की यह बात सुनकर वज्रनाभ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने राजा परीक्षित से कहा-

वज्रनाभ ने कहा- ‘महराज! आप मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, वह सर्वथा आपके अनुरूप है। आपके पिता ने भी मुझे धनुर्वेद की शिक्षा देकर मेरा महान् उपकार किया है। इसलिये मुझे किसी बात की तनिक भी चिन्ता नहीं; क्योंकि उनकी कृपा से मैं क्षत्रियोचित शूरवीरता से भलीभाँति सम्पन्न हूँ। मुझे केवल एक बात की बहुत बड़ी चिन्ता है, आप उसके सम्बन्ध में कुछ विचार कीजिये। यद्यपि मैं मथुरामण्डल के राज्य पर अभिषिक्त हूँ, तथापि मैं यहाँ निर्जन वन में ही रहता हूँ। इस बात का मुझे कुछ भी पता नहीं है कि यहाँ की प्रजा कहाँ चली गयी; क्योंकि राज्य का सुख तो तभी है, जब प्रजा रहे’।

जब वज्रनाभ ने परीक्षित से यह बात कही, तब उन्होंने वज्रनाभ का सन्देह मिटाने के लिये महर्षि शाण्डिल्य को बुलवाया। ये ही महर्षि शाण्डिल्य पहले नन्द आदि गोपों के पुरोहित थे। परीक्षित का सन्देश पाते ही महर्षि शाण्डिल्य अपनी कुटी छोड़कर वहाँ आ पहुँचे। वज्रनाभ ने विधिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया और वे एक ऊँचे आसन पर विराजमान हुए। राजा परीक्षित ने वज्रनाभ की बात उन्हें कह सुनायी। इसके बाद महर्षि शाण्डिल्य बड़ी प्रसन्नता से उनको सान्त्वना देते हुए कहने लगे-

शाण्डिल्य जी ने कहा- प्रिय परीक्षित और वज्रनाभ! मैं तुम लोगों से व्रजभूमि का रहस्य बतलाता हूँ। तुम दत्तचित्त होकर सुनो।

‘व्रज’ शब्द का अर्थ है व्याप्ति। इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण ही इस भूमि का नाम ‘व्रज’ पड़ा है। सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणों से अतीत जो परब्रह्म है, वही व्यापक है। इसलिये उसे ‘व्रज’ कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवन्मुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं। इस परब्रह्मस्वरूप व्रजधाम में नन्दनन्दन भगवान श्रीकृष्ण का निवास है। उनका एक-एक अंग सच्चिदानन्दस्वरूप है। वे आत्माराम और आप्तकाम हैं। प्रेम रस में डूबे हुए रसिकजन ही उनका अनुभव करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा है-राधिका; उनसे रमण करने के कारण ही रहस्य रस के मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष उन्हें ‘आत्माराम’ कहते हैं। ‘काम’ शब्द का अर्थ है कामना-अभिलाषा; व्रज में भगवान श्रीकृष्ण के वांछित पदार्थ हैं-गौएँ, ग्वालबाल, गोपियाँ और उनके साथ लीला-विहार आदि; वे सब-के-सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं। इसी से श्रीकृष्ण को ‘आप्तकाम’ कहा गया है।

भगवान श्रीकृष्ण की यह रहस्य-लीला प्रकृति से परे है। वे जिस समय प्रकृति के साथ खेलने लगते हैं, उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीला का अनुभव करते हैं। प्रकृति के साथ होने वाली लीला में ही रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के द्वारा सृष्टि, स्थिति और प्रलय की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह निश्चय होता है कि भगवान की लीला दो प्रकार की है-एक वास्तवी और दूसरी व्यावहारिकी। वास्तवी लीला स्वयंवेद्य है-उसे स्वयं भगवान और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं। जीवों के सामने जो लीला होती है, वह व्यावहारिकी लीला है। वास्तवी लीला के बिना व्यावहारिकी लीला नहीं हो सकती; परन्तु व्यावहारिकी लीला का वास्तविक लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता। तुम दोनों भगवान की जिस लीला को देख रहे हो, यह व्यावहारिकी लीला है। यह पृथ्वी और स्वर्ग आदि लोक इसी लीला के अन्तर्गत हैं। इसी पृथ्वी पर यह मथुरामण्डल है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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