श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 28-34

षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 28-34 का हिन्दी अनुवाद


श्रीशुकदेव जी कहते हैं- महाराज! जब देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की, तब स्वयं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने पश्चिम की ओर (अन्तर्देश में) प्रकट हुए। भगवान् के नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे। उनके साथ सोलह पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए थे। वे देखने में सब प्रकार से भगवान् के समान ही थे। केवल उनके वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि नहीं थी।

परीक्षित! भगवान् का दर्शन पाकर सभी देवता आनन्द से विह्वल हो गये। उन लोगों ने धरती पर लोटकर साष्टांग दण्डवत् किया और फिर धीरे-धीरे उठकर वे भगवान् की स्तुति करने लगे।

देवताओं ने कहा- भगवन्! यज्ञ में स्वर्गादि देने की शक्ति तथा उनके फल की सीमा निश्चित करने वाले काल भी आप ही हैं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों को आप चक्र से छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। इसलिये आपके नामों की कोई सीमा नहीं है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। विधातः! सत्त्व, रज, तम- इन तीन गुणों के अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनके नियामक आप ही हैं। आपके परमपद का वास्तविक स्वरूप इस कार्यरूप जगत् का कोई आधुनिक प्राणी नहीं जान सकता।

भगवान्! नारायण! वासुदेव! आप आदि पुरुष (जगत् के परम कारण) और महापुरुष (पुरुषोत्तम) हैं। आपकी महिमा असीम है। आप परममंगलमय, परम कल्याण-स्वरूप और परमदयालु हैं। आप ही सारे जगत् के आधार एवं अद्वितीय हैं, केवल आप ही सारे जगत् के स्वामी हैं। आप सर्वेश्वर हैं तथा सौन्दर्य और मृदुलता की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी के परमगति हैं।

प्रभो! परमहंस परिव्राजक विरक्त महात्मा जब आत्मसंयमरूप परमसमाधि से भलीभाँति आपका चिन्तन करते हैं, तब उनके शुद्ध हृदय में परमहंसों के धर्म वास्तविक भगवद्भजन का उदय होता है। इससे उनके हृदय के अज्ञानरूप किवाड़ खुल जाते हैं और उनकी आत्मलोक में आप आत्मानन्द के रूप में बिना किसी आवरण के प्रकट हो जाते हैं और वे आपका अनुभव करके निहाल हो जाते हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं।

भगवन्! आपकी लीला का रहस्य जानना बड़ा ही कठिन है। क्योंकि आप बिना किसी आश्रय और प्राकृत शरीर के हम लोगों के सहयोग की अपेक्षा न करके निगुण और निर्विकार होने पर भी स्वयं ही इस सगुण जगत् की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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