षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद
परीक्षित! त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था। इसी से उस पापी और अत्यन्त क्रूर पुरुष का नाम वृत्रासुर पड़ा। बड़े-बड़े देवता अपने-अपने अनुयायियों के सहित एक साथ ही उस पर टूट पड़े तथा अपने-अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। परन्तु वृत्रासुर उनके सारे अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया। अब तो देवताओं के आश्चर्य की सीमा न रही। उनका प्रभाव जाता रहा। वे सब-के-सब दीन-हीन और उदास हो गये तथा एकाग्रचित्त से अपने हृदय में विराजमान आदिपुरुष श्रीनारायण की शरण में गये। देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की- वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी-ये पाँचों भूत, इनसे बने हुए तीनों लोक उनके अधिपति ब्रह्मादि तथा हम सब देवता जिस काल से डरकर उसे पूजा-सामग्री की भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान् से भयभीत रहता है। इसलिये अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं। प्रभो! आपके लिये कोई नयी बात न होने के कारण कुछ भी देखकर आप विस्मित नहीं होते। आप अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही सर्वथा पूर्णकाम, सम एवं शान्त हैं। जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण लेता है, वह मूर्ख है। वह मानो कुत्ते की पूँछ पकड़कर समुद्र पार करना चाहता है। वैवस्वत मनु पिछले कल्प के अन्त में जिनके विशाल सींग में पृथ्वीरूप नौका को बाँधकर अनायास ही प्रलयकालीन संकट से बच गये, वे ही मत्स्य भगवान् हम शरणागतों को वृत्रासुर के द्वारा उपस्थित किये हुए दुस्तर भय से अवश्य बचायेंगे। प्राचीनकाल में प्रचण्ड पवन के थपेड़ों से उठी हुई उत्ताल तरंगों की गर्जना के कारण ब्रह्मा जी भगवान् के नाभिकमल से अत्यन्त भयानक प्रलयकालीन जल में गिर पड़े थे। यद्यपि वे असहाय थे, तथापि उनकी कृपा से वे उस विपत्ति से बच सके, वे ही भगवान् हमें इस संकट से पार करें। उन्हीं प्रभु ने अद्वितीय होने पर भी अपनी माया से हमारी रचना की और उन्हीं के अनुग्रह से हम लोग सृष्टि कार्य का संचालन करते हैं। यद्यपि वे हमारे सामने ही सब प्रकार की चेष्टाएँ कर-करा रहे हैं, तथापि ‘हम स्वतन्त्र ईश्वर हैं’-अपने इस अभिमान के कारण हम लोग उनके स्वरूप को देख नहीं पाते। वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओं से बहुत पीड़ित हो रहे हैं, तब वे वास्तव में निर्विकार रहने पर भी अपनी माया का आश्रय लेकर देवता, ऋषि, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों में अवतार लेते हैं, तथा युग-युग में हमें अपना समझकर हमारी रक्षा करते हैं। वे ही सबके आत्मा और परमाध्य देव हैं। वे ही प्रकृति और पुरुषरूप से विश्व के कारण हैं। वे विश्व से पृथक् भी हैं और विश्वरूप भी हैं। हम सब उन्हीं शरणागतवत्सल भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करते हैं। उदार शिरोमणि प्रभु अवश्य ही अपने निजजन हम देवताओं का कल्याण करेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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