श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 27-44

षष्ठ स्कन्ध: पंचम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 27-44 का हिन्दी अनुवाद


कुछ महीनों तक केवल जल और कुछ महीनों तक केवल हवा पीकर ही उन्होंने ‘हम नमस्कारपूर्वक ओंकारस्वरूप भगवान् नारायण का ध्यान करते हैं, जो विशुद्धचित्त में निवास करते हैं, सबके अन्तर्यामी हैं तथा सर्वव्यापक एवं परमहंसस्वरूप हैं'- इस मन्त्र का अभ्यास करते हुए मन्त्राधिपति भगवान् की आराधना की।

परीक्षित! इस प्रकार दक्ष के पुत्र शबलाश्व प्रजासृष्टि के लिये तपस्या में संलग्न थे। उनके पास भी देवर्षि नारद आये और उन्होंने पहले के समान ही कूट वचन कहे। उन्होंने कहा- ‘दक्ष प्रजापति के पुत्रो! मैं तुम लोगों को जो उपदेश देता हूँ, उसे सुनो। तुम लोग तो अपने भाइयों से बड़ा प्रेम करते हो। इसलिये उनके मार्ग का अनुसन्धान करो। जो धर्मज्ञ भाई अपने बड़े भाइयों के श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण करता है, वही सच्चा भाई है। वह पुण्यवान् पुरुष परलोक में मरुद्गणों के साथ आनन्द भोगता है।

परीक्षित! शबलाश्वों को इस प्रकार उपदेश देकर देवर्षि नारद वहाँ से चले गये और उन लोगों ने भी अपने भाइयों के मार्ग का ही अनुगम किया; क्योंकि नारद जी का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। वे उस पथ के पथिक बने, जो अन्तर्मुखी वृत्ति से प्राप्त होने योग्य, अत्यन्त सुन्दर और भगवत्प्राप्ति के अनुकूल है। वे बीती हुई रात्रियों के समान न तो उस मार्ग से अब तक लौटे हैं और न लौटेंगे ही।

दक्ष प्रजापति ने देखा कि आजकल बहुत-से अपशकुन हो रहे हैं। उनके चित्त में पुत्रों के अनिष्ट की आशंका हो आयी। इतने में ही उन्हें मालूम हुआ कि पहले की भाँति अबकी बार भी नारद जी ने मेरे पुत्रों को चौपट कर दिया। उन्हें अपने पुत्रों की कर्तव्यच्युति से बड़ा शोक हुआ और वे नारद जी पर बड़े क्रोधित हुए। उनके मिलने पर क्रोध के मारे दक्ष प्रजापति के होठ फड़कने लगे और वे आवेश में भरकर नारद जी से बोले।

दक्ष प्रजापति ने कहा- ओ दुष्ट! तुमने झूठमूठ साधुओं का बाना पहन रखा है। हमारे भोले-भोले बालकों को भिक्षुकों का मार्ग दिखाकर तुमने हमारा बड़ा अपकार किया है। अभी उन्होंने ब्रह्मचर्य से ऋषि-ऋण, यज्ञ से देव-ऋण और पुत्रोत्पत्ति से पितृ-ऋण नहीं उतारा। उन्हें अभी कर्म फल की नश्वरता के सम्बन्ध में भी कुछ विचार नहीं था। परन्तु पापात्मन्! तुमने उनके दोनों लोकों का सुख चौपट कर दिया। सचमुच तुम्हारे हृदय में दया का नाम भी नहीं है। तुम इस प्रकार बच्चों की बुद्धि बिगाड़ते फिरते हो। तुमने भगवान् के पार्षदों में रहकर उनकी कीर्ति में कलंक ही लगाया। सचमुच तुम बड़े निर्लज्ज हो।

मैं जानता हूँ कि भगवान् के पार्षद सदा-सर्वदा दुःखी प्राणियों पर दया करने के लिये व्यग्र रहते हैं। परन्तु तुम प्रेम भाव का विनाश करने वाले हो। तुम उन लोगों से भी वैर करते हो, जो किसी से वैर नहीं करते। यदि तुम ऐसा समझते हो कि वैराग्य से ही स्नेहपाश-विषयासक्ति का बन्धन कट सकता है, तो तुम्हारा यह विचार ठीक नहीं हैं; क्योंकि तुम्हारे जैसे झूठमूठ वैराग्य का स्वाँग भरने वालों से किसी को वैराग्य नहीं हो सकता। नारद! मनुष्य विषयों का अनुभव किये बिना उनकी कटुता नहीं जान सकता। इसलिये उनकी दुःखरूपता का अनुभव होने पर स्वयं जैसा वैराग्य होता है, वैसा दूसरों के बहकाने से नहीं होता। तुम तो हमारी वंश परम्परा का उच्छेद करने पर ही उतारू हो रहे हो। तुमने फिर हमारे साथ वही दुष्टता का व्यवहार किया। इसलिये मूढ़! जाओ, लोक-लोकान्तरों में भटकते रहो। कहीं भी तुम्हारे लिये ठहरने को ठौर नहीं होगी।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! संतशिरोमणि देवर्षि नारद ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया। संसार में बस, साधुता इसी का नाम है कि बदला लेने की शक्ति रहने पर भी दूसरे का किया हुआ अपकार सह लिया जाये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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