श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 14-26

षष्ठ स्कन्ध: पंचम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद


यह अपनी बुद्धि ही बहुरूपिणी और सत्त्व, रज आदि गुणों को धारण करने वाली व्यभिचारिणी स्त्री के समान है। इस जीवन में इसका अन्त जाने बिना-विवेक प्राप्त किये बिना अशान्ति को अधिकाधिक बढ़ाने वाले कर्म करने का प्रयोजन ही क्या है? यह बुद्धि ही कुलटा स्त्री के समान है। इसके संग से जीवरूप पुरुष का ऐश्वर्य-इसकी स्वतन्त्रता नष्ट हो गयी है। इसी के पीछे-पीछे वह कुलटा स्त्री के पति की भाँति न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है। इसकी विभिन्न गतियों, चालों को जाने बिना ही विवेकरहित कर्मों से क्या सिद्धि मिलेगी?

माया ही दोनों ओर बहने वाली नदी है। यह सृष्टि भी करती है और प्रलय भी। जो लोग इससे निकलने के लिये तपस्या, विद्या आदि तट का सहारा लेने लगते हैं, उन्हें रोकने के लिये क्रोध, अहंकार आदि के रूप में वह और भी वेग से बहने लगती है। जो पुरुष उसके वेग से विवश अनभिज्ञ है, वह मायिक कर्मों से क्या लाभ उठावेगा? ये पचीस तत्त्व ही एक अद्भुत घर हैं। पुरुष उनका आश्चर्यमय आश्रय है। वही समस्त कार्य-करणात्मक जगत् का अधिष्ठाता है। यह बात न जानकर सच्चा स्वातन्त्र्य प्राप्त किये बिना झूठी स्वतन्त्रता से किये जाने वाले कर्म व्यर्थ ही हैं। भगवान् का स्वरूप बतलाने वाला शस्त्र हंस के समान नीर-क्षीर-विवेकी है। वह बन्ध-मोक्ष, चेतन और जड़ को अलग-अलग करके दिखा देता है। ऐसे अध्यात्म शास्त्ररूप हंस का आश्रय छोड़कर उसे जाने बिना बहिर्मुख बनाने वाले कर्मों से लाभ ही क्या है?

यह काल ही एक चक्र है। यह निरन्तर घूमता रहता है। इसकी धार छुरे और वज्र के समान तीखी है और यह सारे जगत् को अपनी ओर खींच रहा है। इसको रोकने वाला कोई नहीं, यह परम स्वतन्त्र है। यह बात न जानकर कर्मों के फल को नित्य समझकर जो लोग सकामभाव से उनका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उन अनित्य कर्मों से क्या लाभ होगा? शास्त्र ही पिता है; क्योंकि दूसरा जन्म शास्त्र के द्वारा ही होता है और उसका आदेश कर्मों में लगना नहीं, उनसे निवृत्त होना है। इसे जो नहीं जानता, वह गुणमय शब्द आदि विषयों पर विश्वास कर लेता है। अब वह कर्मों से निवृत्त होने की आज्ञा का पालन भला कैसे कर सकता है?’

परीक्षित! हर्यश्वों ने एक मत से यही निश्चय किया और नारद जी की परिक्रमा करके वे उस मोक्ष पथ के पथिक बन गये, जिस पर चलकर फिर लौटना नहीं पड़ता। इसके बाद देवर्षि नारद स्वरब्रह्म में-संगीत लहरी में अभिव्यक्त हुए, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों में अपने चित्त को अखण्ड रूप से स्थिर करके लोक-लोकान्तरों में विचरने लगे।

परीक्षित! जब दक्ष प्रजापति को मालूम हुआ कि मेरे शीलवान् पुत्र नारद के उपदेश से कर्यव्यच्युत हो गये हैं, तब वे शोक से व्याकुल हो गये। उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ। सचमुच अच्छी सन्तान का होना भी शोक का ही कारण है। ब्रह्मा जी ने दक्ष प्रजापति को बड़ी सान्त्वना दी। तब उन्होंने पंचजन-नन्दिनी असिक्नी के गर्भ से एक हजार पुत्र और उत्पन्न किये। उनका नाम था शबलाश्व। वे भी अपने पिता दक्ष प्रजापति की आज्ञा पाकर प्रजा सृष्टि के उद्देश्य तप करने के लिये उसी नारायण सरोवर पर गये, जहाँ जाकर उनके बड़े भाइयों ने सिद्धि प्राप्त की थी। शबलाश्वों ने वहाँ जाकर उस सरोवर में स्नान किया। स्नान मात्र से ही उनके अन्तःकरण के सारे मल धुल गये। अब वे परब्रह्मस्वरूप प्रणव का जप करते हुए महान् तपस्या में लग गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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