श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 27-43

षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 27-43 का हिन्दी अनुवाद


वह मूर्ख इसी प्रकार अपना जीवन बिता रहा था कि मृत्यु का समय आ पहुँचा। अब वह अपने पुत्र बालक नारायण के सम्बन्ध में ही सोचने-विचारने लगा। इतने में ही अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं। उनके हाथों में फाँसी है, मुँह टेढ़े-टेढ़े हैं और शरीर के रोएँ खड़े हुए हैं। उस समय बालक नारायण वहाँ से कुछ दूरी पर खेल रहा था। यमदूतों को देखकर अजामिल अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसने बहुत ऊँचे स्वर से पुकारा- ‘नारायण!’। भगवान् के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, उनके नाम का कीर्तन कर रहा है; अतः वे बड़े वेग से झटपट वहाँ आ पहुँचे। उस समय यमराज के दूत दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। विष्णुदूतों ने बलपूर्वक रोक दिया।

उनके रोकने पर यमराज के दूतों ने उनसे कहा- ‘अरे, धर्मराज की आज्ञा का निषेध करने वाले तुम लोग हो कौन? तुम किसके दूत हो, कहाँ से आये हो और इसे ले जाने से हमें क्यों रोक रहे हो? क्या तुम लोग कोई देवता, उपदेवता अथवा सिद्धश्रेष्ठ हो? हम देखते हैं कि तुम सब लोगों के नेत्र कमलदल के समान कोमलता से भरे हैं, तुम पीले-पीले रेशमी वस्त्र पहने हो, तुम्हारे सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और गलों में कमल के हार लहरा रहे हैं। सबकी नयी अवस्था है, सुन्दर-सुन्दर चार-चार भुजाएँ हैं, सभी के करकमलों में धनुष, तरकश, तलवार, गदा, शंख, चक्र, कमल आदि सुशोभित हैं। तुम लोगों की अंगकान्ति से दिशाओं का अन्धकार और प्राकृत प्रकाश भी दूर हो रहा है। हम धर्मराज के सेवक हैं। हमें तुम लोग क्यों रोक रहे हो?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब यमदूतों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायण के आज्ञाकारी पार्षदों ने हँसकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उनके प्रति यों कहा।

भगवान् के पार्षदों ने कहा- यमदूतो! यदि तुम लोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण और धर्म का तत्त्व सुनाओ। दण्ड किस प्रकार दिया जाता है? दण्ड का पात्र कौन है? मनुष्यों में सभी पापाचारी दण्डनीय हैं अथवा उनमें से कुछ ही?

यमदूतों ने कहा- वेदों ने जिन कर्मों का विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान् के स्वरूप हैं। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयं प्रकाश ज्ञान हैं-ऐसा हमने सुना है। जगत् के राजोमय, सत्त्वमय और तमोमय-सभी पदार्थ, सभी प्राणी अपने परम आश्रय भगवान् में ही स्थित रहते हैं। वेद ही उनके गुण, नाम, कर्म और रूप आदि के अनुसार उनका यथोचित विभाजन करते हैं। जीव शरीर अथवा मनोवृत्तियों से जितने कर्म करता है, उसके साक्षी रहते हैं-सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियाँ, चन्द्रमा, सन्ध्या, रात, दिन, दिशाएँ, जल, पृथ्वी, काल और धर्म। इनके द्वारा अधर्म का पता चल जाता है और तब दण्ड के पात्र का निर्णय होता है। पाप कर्म करने वाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार दण्डनीय होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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