श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 15-27

नवम स्कन्ध: चतुर्थोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद


श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अम्बरीष बड़े भाग्यवान् थे। पृथ्वी के सातों द्वीपों, अचल सम्पत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य उनको प्राप्त था। यद्यपि ये सब साधारण मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ हैं, फिर भी वे इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर मनुष्य घोर नरक में जाता है, वह केवल चार दिन की चाँदनी है। उसका दीपक तो बुझा-बुझाया है। भगवान् श्रीकृष्ण में और उनके प्रेमी साधुओं में उनका परम प्रेम था। उस प्रेम के प्राप्त हो जाने पर तो यह सारा विश्व और इसकी समस्त सम्पत्तियाँ मिट्टी के ढेले के समान जान पड़ती हैं। उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द युगल में, वाणी को भगवद्गुणानुवर्णन में, हाथों को श्रीहरि-मन्दिर के मार्जन-सेचन में और अपने कानों को भगवान् अच्युत की मंगलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था। उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरों के दर्शनों में, अंग-संग भगवद्भक्तों के शरीर स्पर्श में, नासिका उनके चरणकमलों पर चढ़ी श्रीमती तुलसी के दिव्य गन्ध में और रसना (जिह्वा) को भगवान् के प्रति अर्पित नैवेद्य-प्रसाद में संलग्न कर दिया था।

अम्बरीष के पैर भगवान् के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की वन्दना किया करते। राजा अम्बरीष ने माला, चन्दन आदि भोग-सामग्री को भगवान् की सेवा में समर्पित कर दिया था। भोगने की इच्छा से नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्र कीर्ति भगवान् के निज-जनों में ही निवास करता है। इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान् के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे। उन्होंने ‘धन्व’ नाम के निर्जल देश में सरस्वती नदी के प्रवाह के सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा महान् ऐश्वर्य के कारण सर्वांग परिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान् की आराधना की थी। उनके यज्ञों में देवताओं के साथ जब सदस्य और ऋत्विज बैठ जाते थे, तब उनकी पलकें नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूप के कारण देवताओं के समान दिखायी पड़ते थे। उनकी प्रजा महात्माओं के द्वारा गाये हुए भगवान् के उत्तम चरित्रों का किसी समय बड़े प्रेम से श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती।

इस प्रकार उनके राज्य के मनुष्य देवताओं के अत्यन्त प्यारे स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करते। वे अपने हृदय में अनन्त प्रेम का दान करने वाले श्रीहरि का नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे। इसलिये उन लोगों को वह भोग-सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धों को भी दुर्लभ है। वे वस्तुएँ उनके आत्मानन्द के सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं।

राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्या से युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्म के द्वारा भगवान् को प्रसन्न करने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग कर दिया। घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदलों की चतुरंगिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होने वाले कोशों के सम्बन्ध में उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि वे सब-के-सब असत्य हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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