दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितम अध्याय (पूर्वार्ध)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितम अध्याय श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद
ये इतने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके गलियाँ बक गये हैं। ठीक है, भाई! ठीक है। पृथ्वी के राजाओं की तो क्या, त्रिलोकी के स्वामी इन्द्र आदि लोकपाल जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवों के ही स्वामी हैं! क्यों! जो सुधर्मासभा को अधिकार में करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओं के वृक्ष पारिजात को उखाड़कर ले आते और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान श्रीकृष्ण भी राजसिंहासन के अधिकारी नहीं हैं! अच्छी बात है!। सारे जगत् की स्वामिनी भगवती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरण-कमलों की उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चँवर आदि राजोचित सामग्रियों को नहीं रख सकते। ठीक है भाई! जिनके चरण-कमलों की धूल संत पुरुषों के द्वारा सेवित गंगा आदि तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुट पर जिनके चरणकमलों की धूर धारण करते हैं; ब्रह्मा, शंकर, मैं और लक्ष्मी जी जिनकी कला की भी कला हैं और जिनके चरणों की धूल सदा-सर्वदा धारण करते हैं; उन भगवान श्रीकृष्ण के लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है! बेचारे यदुवंशी तो कौरवों का दिया हुआ पृथ्वी का एक टुकड़ा भोगते हैं। क्या खूब! हम लोग जूती हैं और ये कुरुवंशी स्वयं सिर हैं। ये लोग ऐश्वर्य से उन्मत्त, घमंडी कौरव पागल-सरीखे हो रहें हैं। इनकी एक-एक बात कटुता से भरी और बेसिर-पैर की है। मेरे जैसा पुरुष- जो इनका शासन कर सकता है, इन्हें दण्ड देकर इनके होश ठिकाने ला सकता है- भला इनकी बातों को कैसे सहन कर सकता है? आज मैं सारी पृथ्वी को कौरवहीन कर डालूँगा, इस प्रकार कहते-कहते बलराम जी क्रोध से ऐसे भर गये, मानो त्रिलोकी को भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये। उन्होंने उसकी नोक से बार-बार चोट करके हस्तिनापुर को उखाड़ लिया और उसे डुबाने के लिये बड़े क्रोध से गंगा जी की ओर खींचने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज