श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 66 श्लोक 30-43

दशम स्कन्ध: षट्षष्टितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्षष्टितम अध्यायश्लोक 30-43 का हिन्दी अनुवाद


भगवान शंकर ने कहा- ‘तुम ब्राह्मणों के साथ मिलकर यज्ञ के देवता ऋत्विग्भूत दक्षिणाग्नि की अभिचार विधि से आराधना करो। इससे वह अग्नि प्रमथगणों के साथ प्रकट होकर यदि ब्राह्मणों के अभक्तपर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हारा संकल्प सिद्ध करेगा।’

भगवान शंकर की ऐसी आज्ञा प्राप्त करके सुदक्षिण ने अनुष्ठान के उपयुक्त नियम ग्रहण किये और वह भगवान श्रीकृष्ण के लिये अभिचार (मारण का पुरश्चरण) करने लगा। अभिचार पूर्ण होते ही यज्ञकुण्ड से अति भीषण अग्नि मुर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसके केश और दाढ़ी-मूँछें तपे हुए ताँबे के समान लाल-लाल थे। आँखों से अंगारे बरस रहे थे। उग्र दाढ़ों और टेढ़ी भृकुटियों के कारण उसके मुख से क्रूरता टपक रही थी। वह अपनी जीभ से मुँह के दोनों कोने चाट रहा था। शरीर नंग-धड़ंग था। हाथों में त्रिशूल लिये हुए था, जिसे वह बार-बार घुमाता जाता था और उसमें से अग्नि की लपटें निकल रही थीं। ताड़ के पेड़ के समान बड़ी-बड़ी टाँगे थीं। वह अपने वेग से धरती को काँपाता हुआ और ज्वालाओं से दसों दिशाओं को दग्ध करता हुआ द्वारका की ओर दौड़ा और बात-की-बात में द्वारका के पास जा पहुँचा। उसके साथ बहुत-से भूत भी थे। उस अभिचार की आग को बिलकुल पास आयी हुई देख द्वारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगल में आग लगने पर हरिन डर जाते हैं। वे लोग भयभीत होकर भगवान के पास दौड़ते हुए आये; भगवान उस समय सभा में चौसर खेल रहे थे, उन लोगों ने भगवान से प्रार्थना की- ‘तीनों लोकों के एकमात्र स्वामी! द्वारका नगरी इस आग से भस्म होना चाहती है। आप हमारी रक्षा कीजिये। आपके सिवा इसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता’। शरणागतवत्सल भगवान ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और और पुकार-पुकारकर विकलता भरे स्वर से हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा- ‘डरो मत, मैं तुम लोगों की रक्षा करूँगा’।

परीक्षित! भगवान सबके बाहर-भीतर की जानने वाले हैं। वे जान गये कि यह काशी से चली हुई माहेश्वरी कृत्या है। उन्होंने उसके प्रतीकार के लिये अपने पास ही विराजमान चक्र सुदर्शन को आज्ञा दी। भगवान मुकुन्द का प्यारा अस्त्र सुदर्शन चक्र कोटि-कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान है। उसके तेज से आकाश, दिशाएँ और अन्तरिक्ष चमक उठे और अब उसने उस अभिचार-अग्नि को कुचल डाला। भगवान श्रीकृष्ण के अस्त्र सुदर्शन चक्र की शक्ति से कृत्यारूप आग का मुँह टूट-फूट गया, उसका तेज नष्ट हो गया, शक्ति कुण्ठित हो गयी और वह वहाँ से लौटकर काशी आ गयी तथा उसने ऋत्विज् आचार्यों के साथ सुदक्षिण को जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार उसका अभिचार उसी के विनाश का कारण हुआ।

कृत्या के पीछे-पीछे सुदर्शन चक्र भी काशी पहुँचा। काशी बड़ी विशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटारियों, सभा भवन, बाजार, नगरद्वार, द्वारों के शिखर, चहारदीवारियों, खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अन्नों के गोदाम से सुसज्जित थी। भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र ने सारी काशी को जलाकर भस्म कर दिया और फिर वह परमानन्दमयी लीला करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के पास लौट आया।

जो मनुष्य पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के इस चरित्र को एकाग्रता के साथ सुनता या सुनाता है, वह सारे पापों से छूट जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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