दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय (पूर्वार्ध)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद
जीव का मन अनेक विकारों का पुंज है। देहान्त के समय वह अनेक जन्मों के संचित और प्रारब्ध कर्मों की वासनाओं के अधीन होकर माया के द्वारा रचे हुए अनेक पांचभौतिक शरीरों में से जिस किसी शरीर के चिन्तन में तल्लीन हो जाता है और मान बैठता है कि 'यह मैं हूँ', उसे वही शरीर ग्रहण करके जन्म लेना पड़ता है। जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि चमकीली वस्तुएँ जल से भरे हुए घड़ों में या तेल आदि तरल पदार्थों में प्रतिबिम्बित होती हैं और हवा के झोंके से उनके जल आदि में हिलने-डोलने पर उनमें प्रतिबिम्बित वस्तुएँ भी चंचल जान पड़ती हैं - वैसे ही जीव अपने स्वरूप के अज्ञान द्वारा रचे हुए शरीर में राग करके उन्हें अपना आप मान बैठता है और मोहवश उनके आने-जाने को अपना आना-जाना मानने लगता है। इसलिए जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसी से द्रोह नहीं नहीं करना चाहिए; क्योंकि जीव कर्म के अधीन हो गया है और जो किसी से भी द्रोह करेगा, उसको इस जीवन में शत्रु से और जीवन के बाद परलोक से भयभीत होना ही पड़ेगा । कंस! यह आपकी छोटी बहिन अभी बच्ची और बहुत दीन है। यह तो आपकी कन्या के सामान है। इस पर, अभी-अभी इसका विवाह हुआ है, विवाह के मंगलचिह्न भी इसके शरीर से नहीं उतरे हैं। ऐसी दशा में आप-जैसे दीनवत्सल पुरुष को इस बेचारी का वध करना उचित नहीं है। श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! इस प्रकार वसुदेवजी ने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि भेदनीति से कंस को बहुत समझाया। परन्तु वह क्रूर तो राक्षसों का अनुयायी हो रहा था; इसलिए उसने अपने घोर संकल्प को नहीं छोड़ा। वसुदेव जी ने कंस का विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिए। तब वे इस निश्चय पर पहुँचे। ‘बुद्धिमान पुरुष को, जहाँ तक उसकी बुद्धि और बल साथ दें, मृत्यु को टालने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रयत्न करने पर भी वह न टल सके, तो फिर प्रयत्न करने वाले का कोई दोष नहीं रहता। इसलिए इस मृत्युरूप कंस को अपने पुत्र दे देने की प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकी को बचा लूँ। यदि मेरे लड़के होंगे तब तक यह कंस स्वयं नहीं मर जायगा, तब क्या होगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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