तृतीय स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद
माताजी! जो दूसरे जीवों का अपमान करता है, वह बहुत-सी घटिया-बढ़िया सामग्रियों से अनेक प्रकार के विधि-विधान के साथ मेरी मूर्ति का पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता। मनुष्य अपने धर्म का अनुष्ठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्वर की प्रतिमा आदि में पूजा करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में एवं सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित परमात्मा का अनुभव न हो जाये। जो व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के बीच में थोड़ा-सा भी अन्तर करता है, उस भेददर्शी को मैं मृत्युरूप महान् भय उपस्थित करता हूँ। अतः सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर घर बनाकर उन प्राणियों के ही रूप में स्थित मुझ परमात्मा का यथायोग्य दान, मान, मित्रता के व्यवहार तथा समदृष्टि के द्वरा पूजन करना चाहिये। माताजी! पाषाणादि अचेतनों की अपेक्षा वृक्षादि जीव श्रेष्ठ हैं, उनसे साँस लेने वाले प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी मन वाले प्राणी उत्तम और उनसे इन्द्रिय की वृत्तियों से युक्त प्राणी श्रेष्ठ हैं। सेन्द्रिय प्राणियों में ही केवल स्पर्श का अनुभव करने वालों की अपेक्षा रस का ग्रहण कर सकने वाले मत्स्यादि उत्कृष्ट हैं तथा रसवेत्ताओं की अपेक्षा गन्ध का अनुभव करने वाले (भ्रमरादि) और गन्ध का ग्रहण करने वालों से भी शब्द का ग्रहण करने वाले (सर्पादि) श्रेष्ठ हैं। उनसे भी रूप का अनुभव करने वाले (काकादि) उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ हैं। उनमें भी बिना पैर वालों से बहुत-से चरणों वाले श्रेष्ठ हैं तथा बहुत चरणों वालों से भी दो चरण वाले मनुष्य श्रेष्ठ हैं। मनुष्यों में भी चार वर्ण श्रेष्ठ हैं; उसमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है। ब्राह्मणों में वेद को जानने वाले उत्तम हैं और वेदज्ञों में भी वेद का तात्पर्य जानने वाले श्रेष्ठ हैं। तात्पर्य जानने वालों से संशय निवारण करने वाले, उनसे भी अपने वर्णाश्रमोचित धर्म का पालन करने वाले तथा उनसे भी आसक्ति का त्याग और अपने धर्म का निष्कामभाव से आचरण करने वाले श्रेष्ठ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज