श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 33-45

तृतीय स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 33-45 का हिन्दी अनुवाद


उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीर को भी मुझे ही अर्पण करके भेदभाव छोड़कर मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार मुझे ही चित्त और कर्म समर्पण करने वाले अकर्ता और समदर्शी पुरुष से बढ़कर मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता। अतः यह मानकर कि जीवरूप अपने अंश से साक्षात् भगवान् ही सबमें अनुगत हैं, इस समस्त प्राणियों को बड़े आदर के साथ मन से प्रणाम करे।

माताजी! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये भक्तियोग और अष्टांगयोग का वर्णन किया। इसमें से एक का भी साधन करने से जीव परमपुरुष भगवान् को प्राप्त कर सकता है। भगवान् परमात्मा परब्रह्म का अद्भुत प्रभाव सम्पन्न तथा जागतिक पदार्थों के नानाविध वैचित्र्य का हेतुभूत स्वरूपविशेष ही ‘काल’ नाम से विख्यात है। प्रकृति और पुरुष इसी के रूप हैं तथा इनसे यह पृथक् भी है। नाना प्रकार के कर्मों का मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसी से महत्तत्त्वादि के अभिमानी भेददर्शी प्राणियों को सदा भय लगा रहता है। जो सबका आश्रय होने के कारण समस्त प्राणियों में अनुप्रविष्ट होकर भूतों द्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगत् का शासन करने वाले ब्रह्मादि का भी प्रभु भगवान् काल ही यज्ञों का फल देने वाला विष्णु है।

इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा-सम्बन्धी ही है। यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान् को भूलकर भोगरूप प्रमाद में पड़े हुए प्राणियों पर आक्रमण करके उनका संहार करता है। इसी के भय से वायु चलता है, इसी के भय से सूर्य तपता है, इसी के भय से इन्द्र वर्षा करते हैं और इसी के भय से तारे चमकते हैं। इसी से भयभीत होकर ओषधियों के सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समय पर फल-फूल धारण करती हैं। इसी के डर से नदियाँ बहती हैं और समुद्र अपनी मर्यादा से बाहर नहीं जाता। इसी के भय से अग्नि प्रज्वलित होती है और पर्वतों के सहित पृथ्वी जल में नहीं डूबती। इसी के शासन से यह आकाश जीवित प्राणियों को श्वास-प्रश्वास के लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीर का सात आवरणों से युक्त ब्राह्मण के रूप में विस्तार करता है।

इस काल के ही भय से सत्त्वादि गुणों के नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना आदि कार्यों में युगक्रम से तत्पर रहते हैं। यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरों का आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरों का अन्त करने वाला है। यह पिता से पुत्र की उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत् की रचना करता है और अपनी संहार शक्ति मृत्यु के द्वारा यमराज को भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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