तृतीय स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद
श्रीभगवान् ने कहा- माताजी! जिस प्रकार अग्नि का उत्पत्तिस्थान अरणि अपने से ही उत्पन्न अग्नि से जलकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार निष्काम भाव से किये हुए स्वधर्मपालन द्वारा अन्तःकरण शुद्ध होने से बहुत समय तक भगवत्कथा-श्रवण द्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्ति से, तत्त्व साक्षात्कार कराने वाला ज्ञान से, प्रबल वैराग्य से, व्रत नियमादि के सहित किये हुए ध्यानाभ्यास से और चित्त की प्रगाढ़ एकाग्रता से पुरुष की प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती है। फिर नित्य प्रति दोष दीखने से भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूप में स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। जैसे सोये हुए पुरुष को स्वप्न में कितने ही अनर्थों का अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पड़ने पर उसे उन स्वप्न के अनुभवों से किसी प्रकार का मोह नहीं होता। उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझमें ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी बिगाड़ सकती। जब मनुष्य अनेकों जन्मों में बहुत समय तक इस प्रकार आत्मचिन्तन में ही निमग्न रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकार के भोगों से वैराग्य हो जाता है। मेरा वह धर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपा से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभव के द्वारा सारे संशयों से मुक्त हो जाता है और फिर लिंगदेह का नाश होने पर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्य संज्ञक मंगलमय पद को सहज में ही प्राप्त कर लेता है, जहाँ पहुँचने पर योगी फिर लौटकर नहीं आता। माताजी! यदि योगी का चित योगसाधना से बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियों में, जिनकी प्राप्ति का योग के सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है-जहाँ मृत्यु की कुछ भी दाल नहीं गलती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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