श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 26 श्लोक 51-63

तृतीय स्कन्ध: षड्-विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षड्विंश अध्यायः श्लोक 51-63 का हिन्दी अनुवाद

फिर परमात्मा के प्रवेश से क्षुब्ध और आपस में मिले हुए उन तत्त्वों से एक जड़ अण्ड उत्पन्न हुआ। उस अण्ड से इस विराट् पुरुष की अभिव्यक्ति हुई। इस अण्ड का नाम विशेष है, इसी के अन्तर्गत श्रीहरि के स्वरूपभूत चौदहों भुवनों का विस्तार है। यह चारों ओर से क्रमशः एक-दूसरे से दस गुने जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार और महत्तत्त्व-इन छः अवरणों से घिरा हुआ है। इन सबके बाहर सातवाँ आवरण प्रकृति का है। कारणमय जल में स्थित उस तेजोमय अण्ड से उठकर उस विराट् पुरुष ने पुनः उसमें प्रवेश किया और फिर उसमें कई प्रकार के छिद्र किये। सबसे पहले उसमें मुख प्रकट हुआ, उससे वाक्-इन्द्रिय और उसके अनन्तर वाक् का अधिष्ठाता अग्नि उत्पन्न हुआ। फिर नाक के छिद्र (नथुने) प्रकट हुए, उनसे प्राणसहित घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न हुई। घ्राण के बाद उसका अधिष्ठाता वायु उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् नेत्रगोलक प्रकट हुए, उनसे चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई और उसके अनन्तर उसका अधिष्ठाता सूर्य उत्पन्न हुआ। फिर कानों के छिद्र प्रकट हुए, उनसे उनकी इन्द्रिय श्रोत और उसके अभिमानी दिग्देवता प्रकट हुए।

इसके बाद उस विराट् पुरुष के त्वचा उत्पन्न हुई। उससे रोम, मूँछ-दाढ़ी तथा सिर के बाल प्रकट हुए और उनके बाद त्वचा की अभिमानी ओषधियाँ (अन्न आदि) उत्पन्न हुईं। इसके पश्चात् लिंग प्रकट हुआ। उससे वीर्य और वीर्य के बाद लिंग का अभिमानी आपोदेव (जल) उत्पन्न हुआ। फिर गुदा प्रकट हुई, उससे अपानवायु और अपान के बाद उसका अभिमानी लोकों को भयभीत करने वाला मृत्यु देवता उत्पन्न हुआ। तदनन्तर हाथ प्रकट हुए, उनसे बल और बल के बाद हस्तेन्द्रिय का अभिमानी इन्द्र उत्पन्न हुआ। फिर चरण प्रकट हुए, उनसे गति (गमन की क्रिया) और फिर पादेन्द्रिय का अभिमानी विष्णु देवता उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार जब विराट् पुरुष के नाड़ियाँ प्रकट हुईं, तो उनसे रुधिर उत्पन्न हुआ और उससे नदियाँ हुई। फिर उसके उदर (पेट) प्रकट हुआ। उससे क्षुधा-पिपासा की अभिव्यक्ति हुई और फिर उदर का अभिमानी समुद्र देवता उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् उसके हृदय प्रकट हुआ, हृदय से मन का प्राकट्य हुआ। मन के बाद उसका अभिमानी देवता चन्द्रमा हुआ। फिर हृदय से ही बुद्धि और उसके बाद उसका अभिमानी ब्रह्मा हुआ। तत्पश्चात् अहंकार और उसके अनन्तर उसका अभिमानी रुद्र देवता उत्पन्न हुआ। इसके बाद चित्त और उसका अभिमानी क्षेत्रज्ञ प्रकट हुआ। जब ये क्षेत्रज्ञ के अतिरिक्त सारे देवता उत्पन्न होकर भी विराट् पुरुष को उठाने में असमर्थ रहे, तो उसे उठाने के लिये क्रमशः फिर अपने-अपने उत्पत्ति स्थानों में प्रविष्ट होने लगे। अग्नि ने वाणी के साथ मुख में प्रवेश किया, परन्तु इससे विराट् पुरुष न उठा। वायु ने घ्राणेन्द्रिय के सहित नासाछिद्रों में प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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