तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद
अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर यद्यपि वे मुझ मायापति के सत्यादि लोकों की भोगसम्पत्ति, भक्ति की प्रवृत्ति के पश्चात् स्वयं प्राप्त होने वाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठलोक के भगवदीय ऐश्वर्य की भी इच्छा नहीं करते, तथापि मेरे धाम पहुँचने पर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती हैं। जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद् और इष्टदेव हूँ-वे मेरे ही आश्रय में रहने वाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठधाम में पहुँचकर किसी प्रकार की भी इन दिव्य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है। माताजी! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जाने वाले वासनामय लिंगदेह को तथा शरीर से सम्बन्ध रखने वाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्यान्य संग्रहों को भी छोड़कर अनन्य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं-उन्हें मैं मृत्युरूप संसारसागर से पार कर देता हूँ। मैं साक्षात् भगवान् हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों का आत्मा हूँ; मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता। मेरे भय से यह वायु चलती है, मेरे भय से सूर्य तपता है, मेरे भय से इन्द्र वर्षा करता और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भय से मृत्यु अपने कार्य में प्रवृत्त होता है। योगिजन ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तियोग के द्वारा शान्ति प्राप्त करने के लिये मेरे निर्भय चरणकमलों का आश्रय लेते हैं। संसार में मनुष्य के लिये सबसे बड़ी कल्याण प्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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