श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 17-33

तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद


तब जीव अपने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति से युक्त हृदय से आत्मा को प्रकृति से परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखण्ड और उदासीन (सुख-दुःख शून्य) देखता है तथा प्रकृति को शक्तिहीन अनुभव करता है। योगियों के लिये भगवत्प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मंगलमय मार्ग नहीं है। विवेकीजन संग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्द बन्धन मानते हैं; किन्तु वही संग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है।

जो लोग सहनशीन, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितू, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखने वाले, शान्त, सरल स्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करने वाले होते हैं, जो मुझमें अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिये सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाये रहते हैं-उन भक्तों को संसार के तरह-तरह ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं। साध्वि! ऐसे-ऐसे सर्वसंगपरित्यागी महापुरुष ही साधु होते हैं, तुम्हें उन्हीं के संग की इच्छा करनी चाहिये; क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को हर लेने वाले हैं। सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान कराने वाली तथा हृदय और कानों को प्रिय लगने वाली कथाएँ होती हैं। उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्ष मार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होगा। फिर मेरी सृष्टि आदि लीलाओं का चिन्तन करने से प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जाने पर मनुष्य सावधानतापूर्वक योग के भक्ति प्रधान सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिये यत्न करेगा। इस प्रकार प्रकृति के गुणों से उत्पन्न हुए शब्दादि विषयों का त्याग करने से, वैराग्ययुक्त ज्ञान से, योग से और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से मनुष्य मुझे अपने अन्तरात्मा को इस देह में ही प्राप्त कर लेता है।

देवहूति ने कहा- भगवन्! आपकी समुचित भक्ति का स्वरूप क्या है? और मेरी-जैसी अबलाओं के लिये कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहज में ही आपके निर्वाणपद को प्राप्त कर सकूँ? निर्वाणस्वरूप प्रभो! जिसके द्वारा तत्त्वज्ञान होता है और जो लक्ष्य को बेधने वाला बाण के समान भगवान् की प्राप्ति कराने वाला है, वह आपका कहा हुआ योग कैसा है उसके कितने अंग हैं? हरे! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे कि आपकी कृपा से मैं मन्दमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषय को सुगमता से समझ सकूँ।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जिसके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माता का ऐसा अभिप्राय जानकर कपिल जी के हृदय में स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्त्वों का निरूपण करने वाले शास्त्र का, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया। साथ ही भक्ति-विस्तार एवं योग का भी वर्णन किया।

श्रीभगवान् ने कहा- माता! जिसका चित्त एकमात्र भगवान् में ही लग गाया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों में लगी हुई तथा विषयों का ज्ञान कराने वाली (कर्मेंदिय एवं ज्ञानेद्रिय-दोनों प्रकार की) इन्द्रियों की जो सत्त्वमूर्ति श्रीहरि के प्रति स्वाभाविक प्रवृत्ति है, वही भगवान् की अहैतुकी भक्ति है। यह मुक्ति से भी बढ़कर है; क्योंकि जठरानल जिस प्रकार खाये हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंसारों के भण्डाररूप लिंगशरीर को तत्काल भस्म कर देती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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